बादल को घिरते देखा : जन-गण-मन के कवि बाबा नागार्जुन की सबसे लोकप्रिय कविता

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बिहार के मधुबनी में जन्मे जनकवि नागार्जुन हिंदी और मैथिली के वामपंथी कवि व लेखक के रूप में ख्यात हैं. अपने लेखन, राजनीतिक-सामाजिक काम और घुमक्कड़ी में उनके सरोकार हमेशा वंचित तबके के पक्ष में रहे हैं. उनकी कविताएं रचना लोक में धंसने की इच्छा से पहले अपने अचरज भरे दूर-दूर तक फैले भूगोल में भटकने के लिए आमंत्रित करती हैं. उनका लेखन हमारे भौगोलिक, प्राकृतिक, जैविक और प्रतिपल घटित मानवीय व्यवहार का इतिहास भी है और जीवित साक्ष्य भी, जिनमें वस्तुओं की उपस्थिति केंद्रीय नहीं है. उनका काव्य एक ऐसे प्रिज़्म की तरह है, जिससे गुज़रते हुए जीवन के सारे रंग आंखों के सामने उजागर होने लगते हैं.

गौरतलब है, कि नागार्जुन मैथिली के श्रेष्ठ कवियों में जाने जाते हैं, लेकिन उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है. संभावना भर की जा सकती है, कि कभी छुटपुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु वह इस रूप में चिह्नित नहीं है. हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकें हैं, जो सर्वविदित है. उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं. मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीं जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी. अब तक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है. अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है.

नागार्जुन की अनेक कविताएं छोटे-छोटे आख्यानों और उपाख्यानों से बनी हैं. निराला के बाद वे अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियां और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया. उनके भीतर पारंपरिक काव्य रूपों को नए कथ्य के साथ अपनी रचनाओं में उतारने की अदम्य क्षमता थी. उनकी भाषा शैली बहुत फैली हुई है. उनकी रचना भाषा नये शब्दों को ग्रहण करने के मामले में लचीली और समावेशी है. उनके गद्य में भी वे सारी खूबियां मौजूद हैं, जो उनकी कविता की भी खूबियां हैं. वर्णन की कला में नागार्जुन अद्वितीय हैं. महीन से महीन ब्यौरे भी उनकी आंखों और स्मृति से बच नहीं पाए. उनके गद्य और उनकी कविताओं को अलग करके देखना बेमानी होगी. ये दोनों ही पक्ष उनके दो हाथ की तरह हैं, जिसमें एक कागज़ संभालता है तो दूसरा कलम.

नागार्जुन को पढ़ते हुए ऐसा लगता है, मानो उनके पास ज़रूर कोई मैग्नीफाइंग ग्लास रहा हो, जिसकी मदद से वो दूर की चीज़ों को पास ले आते थे और छोटी-छोटी चीज़ों को भी बड़ा कर देते थे. और, यह मैग्नीफाइंग ग्लास उनके हाथ में नहीं बल्की उनके मस्तिष्क, उनकी रचनाओं, उनके विचारों, उनकी संवेदनाओं और उनकी कलम में मौजूद था. एक ऐसा मैग्नीफाइंग ग्लास जो सिर्फ विद्रूपताओं को ही स्पष्ट नहीं करता, बल्कि मनुष्य की अच्छाइयों को भी मेग्नीफाई करने का काम करता है. आइए पढ़ते हैं, उसी मैग्नीफाइंग ग्लास से निकली नागार्जुन की सबसे लोकप्रिय कविता ‘बादल को घिरते देखा’, जिसमें उन्होंने बादल व प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन किया है. यह कविता कल्पना की दृष्टि से कालिदास एवं निराला की काव्य परंपरा की सारथी है, जिसकी रचना नागार्जुन ने साल 1938 में की थी. उनकी इस कविता को काव्य-संग्रह ‘युगधारा’ में भी संकलित गया.

बादल को घिरते देखा : नागार्जुन
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है.
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है.

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-बगल रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होगी,
निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.

दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊंचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.

कहां गया धनपति कुबेर वह?
कहां गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूंढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है.

शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित-धवल-भोजपत्रों से
छायी हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुन्तल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव-पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अंगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature

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