नेहरू की तरह बड़बोलेपन में नहीं, चीन को सबक सिखाने में यकीन रखते हैं मोदी! | – News in Hindi

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तवांग सेक्टर में एलएसी पर भारत और चीन के सैनिकों के बीच हाथापाई और पत्थरबाजी शुक्रवार, नौ दिसंबर को हुई है. ये घटना तवांग सेक्टर के यंगस्टे में हुई है. रक्षा मंत्रालय के सूत्र बता रहे हैं कि इस संघर्ष में भारत से ज्यादा चीन के सैनिक घायल हुए हैं. जो भारतीय सैनिक घायल हुए हैं, उनका इलाज गुवाहाटी के सैन्य अस्पताल में चल रहा है. बताया जा रहा है कि इस संघर्ष की नौबत तब आई, जब चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सामान्य से बड़ी पैट्रोलिंग पार्टी तवांग सेक्टर के इस इलाके में एलएसी के करीब आई, जिसका भारतीय सैनिकों ने विरोध किया. इसी को लेकर झगड़ा बढ़ता चला गया और फिर मारपीट शुरु हुई, जिसमें बाइस चीनी और नौ भारतीय जवानों के घायल होने की आरंभिक सूचना तमाम स्रोतों से आ रही है. भारतीय सेना ने चीनी सेना को उस चोटी पर कब्जा करने से रोक दिया, जिसकी चाहत में वो करीब तीन सौ जवानों की टुकड़ी के साथ पहुंची थी.

हालांकि भारत- चीन के सैनिकों के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर हुए इस टकराव की खबर सामने आने के साथ ही जमकर राजनीति शुरु हो गई है. भारतीय सेना के पराक्रम की सराहना और उनका मनोबल बढ़ाने की जगह, कांग्रेस के नेताओं से लेकर ओवैसी तक, विपक्ष के ज्यादातर नेताओं ने मोदी सरकार पर हमले तेज कर दिये हैं. चीन के सामने केंद्र सरकार का रुख कमजोर होने की बात करते हुए ये सवाल पूछा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी इसे लेकर खामोश क्यों हैं, वो बोलते क्यों नहीं हैं. संसद का सत्र चल रहा है, तो ये मांग भी कि मोदी खुद इस मामले में सदन के अंदर बयान दें और स्थिति को साफ करें.

मोदी की खामोशी के मायने?

सवाल ये उठता है कि मोदी की खामोशी के मायने क्या हैं? क्या मोदी को चीन के सामने जुबानी जंग का मोर्चा खोल देना चाहिए या फिर भारतीय सैनिकों और उनकी कमान संभालने वाले अधिकारियों को अपना काम करते देते रहना चाहिए, जो उन्होंने किया है डोकलाम से लेकर गलवान और अब अरुणाचल प्रदेश तक, एलएसी पर. किसी भी जगह चीन की पीएलए के साथ टकराव होने पर भारतीय सैनिक पीछे नहीं हटे हैं, बल्कि हर जगह ईंट का जवाब पत्थर से देने की कोशिश की है, सिर्फ मुहावरे के तौर पर नहीं, असल में. यहां तक कि मजबूर होकर चीन को अपने सैनिकों के मारे जाने की बात पिछले कुछ वर्षों में औपचारिक तौर पर कबूल करनी पड़ी है, जो चीन अमूमन इस तरह के मामलों में चुप्पी ही बरतता रहा है.

क्या चीन के साथ भारत के इस छोटे ही सही, लेकिन ताजा टकराव के बाद पीएम मोदी खुलकर चीन के सामने बयानबाजी शुरु कर देंगे या फिर अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के मामले में पिछले आठ वर्षों में अपना जलवा बिखेर चुके मोदी चाणक्य नीति पर भरोसा करेंगे, जहां दुश्मन को चुपचाप ठोकते रहने को ज्यादा उपयोगी माना गया है, जुबानी जंग कर अपने सैनिकों पर दबाव बनाने और दुश्मन को टकराव बढ़ाने के लिए मौका देने की जगह.

मोदी वो गलतियां नहीं करना चाहते, जो नेहरू ने की

दरअसल मोदी वो गलतियां नहीं करना चाहते, जो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की थीं. मोदी राजनीति और रणनीति के तो उस्ताद हैं ही, इतिहास से भी गहरी सीख लेते हैं. कहा भी जाता है कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते, वो खुद अपना नुकसान करते हैं. ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और ‘विश्व इतिहास की झलक’ जैसी किताबें लिखकर अपने को इतिहासकारों की श्रेणी में शामिल करने वाले नेहरू ने चीन के मामले में इतिहास पर भरोसा नहीं किया था और न ही इतिहास पर बारीक निगाह रखने वाले सरदार पटेल की चेतावनी पर ध्यान दिया था, जो सिर्फ इतिहास पढ़ते ही नहीं थे, इतिहास बनाने में भी यकीन रखते थे.

सरदार ने नेहरू को सावधान किया था

तिब्बत पर चीन जब अपना अंकुश बढ़ा रहा था, तो 1950 में अपने देहांत के पहले सरदार ने नेहरू को सावधान किया था, कहा था कि अगर तिब्बत को चीन निगल रहा है और इस पर हम उसका समर्थन करते रहे, तो चीन कल हमारी सीमा पर आकर खड़ा हो जाएगा और आगे जाकर हमारे लिए मुसीबत बनेगा. सरदार ये चेतावनी देने के कुछ समय बाद ही स्वर्गवासी हो गये, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में अपने को माहिर समझने वाले नेहरू उनकी सलाह पर ध्यान देने की जगह, चीन से गच्चा खा गये. पहले तो ‘हिंदी- चीनी भाई- भाई’ का रोमांटिक राग अलापते रहे, सुरक्षा परिषद में भारत को ऑफर की गई स्थाई सदस्यता स्वीकार कर लेने की जगह, चीन को उसकी सदस्यता दिला गये और बाद में जब चीन ने पीठ में खंजर घोंपने की शुरुआत की, तो बदहवास होकर ऐसा बयान दे दिया, जिसका सहारा लेकर चीन भारत पर पूरी ताकत से हमला कर बैठा.

India china relations

ये घटना 1962 की है. देशवासियों के मानस पटल से वो कभी दूर हो भी नहीं सकती. आखिर 1947 में आजादी हासिल होने के बाद अभी तक की एक मात्र सैन्य पराजय का दंश देश को देने में सैनिकों की जगह, नेहरू और उनके चापलूस रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन की बड़ी भूमिका रही. इन दोनों ने भारतीय सेना के जांबाज जनरलों की सलाह सुनने की जगह उन चापलूस अधिकारियों की बात सुनी, जिनका रणनीतिक मामले में कोई ज्ञान नहीं था और उस जगह और उस समय में चीन से लड़ाई मोली, जो कोई भी होशियार राजनीतिज्ञ- कूटनीतिज्ञ कभी नहीं करता.

सरदार पटेल की चेतावनी के बावजूद नेहरू जब हिंदी- चीनी भाई-भाई का राग अलापते हुए चीनी नेताओं के साथ गलबहियां कर रहे थे, उस वक्त चीन चुपचाप मैकमोहन लाइन के दूसरी तरफ भारतीय इलाकों पर कब्जा करने की साजिश रच रहा था और इसके लिए जरूरी तैयारी कर रहा था. इसके सामने भारत अपनी सैन्य तैयारियां नहीं कर रहा था, बल्कि विश्व शांति का मसीहा बनने की चाहत में नेहरू ये मानकर चल रहे थे कि भारत को अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने की कोई जरूरत ही नहीं है, चीन से खतरे की बात कौन कहे.

ऐसे में 1959 के बाद, जब चीन ने एक के बाद एक, कई भारतीय इलाकों में घुसपैठ का सिलसिला शुरु किया, तो हम अपनी सैनिक ताकत बढ़ाने की जगह उस बेवकूफी भरी ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ के लिए गये, जहां बिना किसी संसाधन के आगे बढ़कर सिर्फ सैन्य पोस्ट खड़े करने की औपचारिकता निभाई जा रही थी और ये माना जा रहा था कि चीन इसे बड़ी शांति के साथ स्वीकार कर लेगा और हमारी सीमा सुरक्षित हो जाएगी. ऐसा नहीं है कि भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारी चेतावनी नहीं दे रहे थे. लेफ्टिनेंट जनरल एसपीपी थोराट से लेकर लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह और लेफ्टिनेंट जनरल दौलत सिंह लगातार चीन के खतरे की तरफ भारत के राजनीतिक नेतृत्व का ध्यान खीच रहे थे, लेकिन नेहरू और उनके रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन तत्कालीन आईबी चीफ बीएन मल्लिक और कभी किसी बड़े सैन्य अभियान में हिस्सा नहीं लेने वाले लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल जैसे चापलूसों की बात सुन रहे थे.

तत्कालीन आर्मी चीफ जनरल केएस थिमय्या का मामला जग जाहिर था. 1947-48 के भारत- पाक युद्ध में जिस जनरल थिमय्या ने कश्मीर का बड़ा हिस्सा भारत के पास बने रहने में बड़ी भूमिका निभाई थी और जोजिला की ग्यारह हजार फीट से ज्यादा की उंचाई पर टैंकों को चढ़ाकर लद्दाख को पाकिस्तान के हाथ में जाने से बचाया था और जिनके उस पराक्रम की तुलना हनीबाल के आल्प्स पर हाथियों को चढ़ाने के अभियान से दुनिया के सैन्य इतिहास में की जाती है, उस थिमय्या को भी कहां सुन रहे थे नेहरू. हालात ये बने थे कि भारतीय सेना में गुटबाजी को बढ़ावा देने में लगे थे रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और नेहरू अंधे होकर न सिर्फ मेनन को सुन रहे थे, बल्कि उस जनरल कौल को गोद में बिठाये हुए थे, जो आर्मी चीफ बनने के अपने मंसूबे के तहत तब मेजर जनरल रहे सैम मानेकशा का झूठे आरोपों में कोर्ट मार्शल करवाने मे लगे हुए थे.

सेना में घुसाई जा रही राजनीतिक तिकड़मबाजी से परेशान थिमय्या ने एक बार इस्तीफा तक दे दिया था, संसद में हंगामा मचने पर नेहरू ने कृष्ण मेनन और कौल को काबू में रखने का भरोसा देकर इस्तीफा वापस करवाया, लेकिन इसके साथ ही नेहरू अपना वादा भूल गये. पीएम नेहरू की इस धोखेबाजी से दुखी थिमय्या आखिरकार छुट्टी पर उतर गये. नेहरू ने अगला सैन्य प्रमुख जनरल थोराट को बनाये जाने की थिमैया की सिफारिश को दरकिनार रखते हुए जनरल पीएन थापर को सेनाध्यक्ष बनाया, जो खुद फैसले लेने की जगह कौल की सुनते थे और सेना की वास्तविक हालत को सामने रखने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाते थे, चीन से लड़ने की की कौन कहे.

ऐसे माहौल में जब चीन ने तब के नेफा, जो आज अरुणाचल प्रदेश के तौर पर जाना जाता है, में अपनी घुसपैठ की, तो नेहरू आसमान से गिरे और खजूर में अटके. आठ सितंबर 1962 के दिन चीनी सेना ने दोपहर ढाई बजे के करीब घुसपैठ करते हुए धोला पोस्ट को घेर लिया. बारह सितंबर को केंद्र सरकार ने सेना को आदेश दिया कि धोला इलाके से चीनी फौज को खदेड़ा जाए. तब उस इलाके में तैनात भारतीय सेना की तैंतीसवीं कोर के कमांडर रहे लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह ने ये लक्ष्य हासिल कर पाने में अपनी असमर्थता जताई. आखिर पिछले वर्षों में सेना की तरफ से दी गई तमाम चेतावनियों के बावजूद न तो फौज की तादाद बढ़ाई गई थी और न ही सैन्य संसाधनों में इजाफा किया गया था. नेहरू तो साम्यवादी चीन के साथ दोस्ती के नशे में थे, आखिर पंचशील की रुमानी सोच उनके दिवास्वप्न का हि्स्सा थी.

 न गोला- बारूद हैं और न ही पर्याप्त मात्रा में फौज…

धोला के इलाके में चीन की बड़ी घुसपैठ होने पर, नेहरू और कृष्ण मेनन के सामने आज्ञाकारी बच्चे की तरह खड़े रहने वाले, जनरल थापर को भी 14 सितंबर 1962 के दिन सरकार को ये कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि अगर हम चीन के सामने धोला के इलाके में लड़ने के लिए गये, तो परिस्थितियां गंभीर होंगी, क्योंकि न तो हमारे पास जरूरी सैन्य संसाधन, गोला- बारूद हैं और न ही पर्याप्त मात्रा में फौज. यही बात तब लद्दाख की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने वाले वेस्टर्न कमांड के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल दौलत सिंह ने भी कही और नेफा की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार रहे ईस्टर्न कमांड के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल एलपी सेन ने भी.

लेकिन अपने सैन्य अधिकारियों की बात सुनने की जगह नेहरू और मेनन शेखी बघारने के लिए गये. अपने ‘दरबारी’ लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल, जो सैन्य मुख्यालय में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ होते थे, को तीन अक्टूबर 1962 को एक नई कोर, 4 कोर बनाकर, चीनियों को नेफा से खदेड़ने की जिम्मेदारी सौंप दी गई. दिल्ली में बैठकर वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के खिलाफ साजिशें रचने वाले जनरल कौल को जब युद्ध के मोर्चे पर जाना पड़ा, तो आटे– दाल का भाव मालूम हुआ. कौल को अपने कोर मुख्यालय से धोला तक निरीक्षण के लिए जाने में ही तीन दिन लग गये, वो भी हेलिकॉप्टर, वाहन और पैदल, सभी रास्ते अख्तियार करने के बावजूद. सामान्य सैनिकों के लिए कैसे हालात थे, इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है, जिन्हें लगातार कई दिन तक पैदल चलना पड़ा था, लड़ने और खाने का सामान भी साथ लेकर पैदल चलने में, उभड़- खाबड़ पहाड़ी प्रदेश में, कंपकंपाती ठंड के बीच. और यही नहीं, उन्हें मोर्चा भी बांधना, खदेड़ना भी था चीनी घुसपैठियों को.

भारतीय सैनिकों के पास ढंग के हथियार नहीं थे

और वो भी किस तैयारी के साथ. 1962 के उस दौर में नेफा के तीन सौ मील लंबे बॉर्डर की सुरक्षा के लिए महज भारतीय फौज की दो ब्रिगेड तैनात थीं. भारत की जो ब्रिगेड धोला में तैनात थी, उसके सामने चीनी फौज की पूरी डिविजन तैनात थी. बाकी सैन्य- सामान और सुविधाओं की कौन कहे. जिस समय हम हिंदी- चीनी, भाई-भाई के नारे लगा रहे थे, उन वर्षों में चीन चुपचाप मैकमोहन लाइन के दूसरी तरफ सड़कों का जाल बिछा रहा था, सैन्य ताकत बढ़ा रहा था. इसके सामने भारतीय सैनिकों के पास ढंग के हथियार तो दूर, पहनने के लिए ढंग के कपड़े और जूते तक नहीं थे.

ऐसी ही कमजोर तैयारी और नेफा में चीन की घुसपैठ के बीच 12 अक्टूबर 1962 के दिन नेहरू का बेहद गैर जिम्मेदाराना बयान आया. पालम एयरपोर्ट से कोलंबो के लिए उड़ान भरने की उस सुबह, विमान में घुसने के पहले नेहरू ने शेखी बघारी – हमने भारतीय फौज को आदेश दे दिया है कि नेफा के भारतीय इलाके से वो चीनी फौज को निकाल फेंके. ये सिर्फ गैर जिम्मेदाराना बयान ही नहीं था, झूठा बयान भी था. दरअसल दो दिन पहले ही जब अपने चापलूस जनरल कौल से नेफा की कड़वी हकीकत नेहरू को पता चल गई थी, तो उन्होंने चीनी सैनिकों को निकाल फेंकने की जगह आदेश में सुधार कर दिया था, भारतीय सेना धोला में अपने मौजूदा मोर्चे पर डटी रहेगी.

कोई समाजवादी देश भारत की मदद करने आया

नेहरू ये बयान देकर विदेश चले गये. लेकिन चीन ने इस बयान को ही भारत पर पूरी ताकत के साथ हमले करने का आधार बना लिया और सात दिन बाद ही, बीस अक्टूबर को बड़ी फौज के साथ भारत पर हमला कर दिया, जिसका अंतिम परिणाम देश ही नहीं, पूरी दुनिया जानती है. चीन के हाथों भारतीय सेना की करारी हार हुई, राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता, गैर जिम्मेदारी और सैन्य तैयारियों के मामले में लापरवाही की वजह से, न कि हमारे बहादुर सैनिकों के हौसलों की कमी की वजह से. महीने दिन बाद चीन ने सामने से सीजफायर किया, हम तो तेजपुर का खजाना भी जलाकर भाग आए थे. जो नेहरू पश्चिमी पूंजीवाद के सामने समाजवाद और गुटनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने में लगे हुए थे, उसी नेहरू को अमेरिका जैसे पूंजीवाद के सबसे बड़े प्रतीक से मदद की भीख मांगनी पड़ी. न तो कोई गुटनिरपेक्ष देश और न ही कोई समाजवादी देश भारत की मदद करने आया, अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की कड़वी हकीकत का स्वप्नदर्शी नेहरू को अंदाजा हुआ, टूटा हुआ दिल लेकर दो साल बाद ही स्वर्गवासी हो गये. जाने के पहले मेनन, थापर और कौल का भी इस्तीफा लेने के लिए मन मसोस कर राजी होना पड़ा.

मोदी को इतिहास की कड़वी सच्चाई पता है

जाहिर है, मोदी को इतिहास की ये कड़वी सच्चाई पता है, आखिर बारह साल के नरेंद्र को वडनगर में पिता की रेलवे स्टेशन की चाय की दुकान पर काम करते हुए भारत की इस करारी हार का पता चला था. मोदी सरदार पटेल की तरह ‘रीयलिस्ट’ हैं, नेहरू की तरह ‘ड्रीमर’ नहीं. इसलिए वो चीन के झांसे में नहीं आ रहे, बल्कि चीन के सामने रक्षा तैयारियों को मजबूत कर रहे हैं, अपने सैन्य अधिकारियों को सुन रहे हैं, बाहर उलूल- जुलूल के बयान नहीं दे रहे, चुपचाप चीन की हर नापाक हरकत का मुकाबला कर रहे हैं भारतीय फौज के जरिये. डोकलाम से लेकर गलवान और अब अरुणाचल प्रदेश में भी यही दिखा है.

भारतीय फौज चीन की सेना को पीठ दिखाकर भाग नहीं रही, बल्कि दो के बदले चार पत्थर चला रही है, थप्पड़ नहीं खा रही, चीनी सैनिकों के दोनों गालों पर थप्पड़ भी दे रही है. चीन से सटी सीमा पर सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है, सेना की तैनाती लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक बढाई जा रही है, राफेल जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमान भारतीय बेड़े में तेजी से शामिल किये जा रहे हैं, मेक इन इंडिया अभियान को रक्षा क्षेत्र में आगे बढ़ाया जा रहा है, ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां 1962 की तरह कॉफी के मग नहीं बना रहीं, बल्कि भारतीय सेना के लिए गोला- बारुद और टैंक तेजी से बना रही हैं.

देश को ये सब कुछ शांति से कर रहे मोदी की चुप्पी बर्दाश्त है, नेहरू जैसा बड़बोलापन नहीं. इसलिए चीन के सामने भारत और भारत की सेना को कमजोर दिखाने में विपक्षी पार्टियों और नेताओं की रुचि हो सकती है, देश की जनता को इसमें कोई रस नहीं, क्योंकि वो 1962 का इतिहास भी जानती है और साठ साल बाद, 2022 के भारत की सच्चाई भी.

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