Where did this sweet that looks like Jalebi come from? What is its tradition? – News18 हिंदी

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राधिका कोडवानी/इंदौर : त्योहार कोई भी हो बिना मिठास के अधूरे ही हैं. वैसे तो होली पर हर समाज की अपनी परंपरा और संस्कृति है.लेकिन,  एक ऐसी भी परंपरा है जो आजादी के बाद भारत में आकर विकसित हुई है. भारत की आजादी के बाद सिंधी समुदाय ने जब पाकिस्तान के सिंध से भारत आए तो वहां से कई तरह की परंपराएं अपने साथ लाया है. उन्हीं परंपराओं में से एक हैं होली पर बनाई जाने वाली घीयर.

रिश्तों में रंग भरने वाले इस त्यौहार की मिठाई का सुख समृद्धि वाला रंग है तभी तो सिंधी समाज के लोग बहन-बेटी और रिश्तेदारों को भेजते हैं. घर आने वाले मेहमानों को भी घीयर ही परोसा जाता है. ये ही सिंधी समाज में परंपरा का हिस्सा है. घीयर की मिठास परंपरा का रूप है. दिखने में यह जलेबी की तरह है, लेकिन इसका स्वाद और आकार जलेबी से अलग है.

साल भर में एक बार मिलता घीयर
सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार विनीता मोटलानी बताया कि होली पर  घीयर बनता है. शिवरात्रि के बाद से ही घीयर बाजारों में बिकना शुरू हो जाता है. उन्होंने बताया कि घीयर का स्वाद वर्ष में केवल एक माह ही चखने को मिलता है. घीयर की डिमांड होली पर ज्यादा रहती है. इसके साथ ही यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका, दुबई, ओमान में भी रहने वाले सिंधी समाज के लोगों तक यह स्वाद यहां से हर वर्ष पंहुचता है.

यह मिठाई मिलता है 300 रुपये किलो
दुकानदार दिलीप वाधवानी ने कहा कि विभाजन के बाद जब सिंध से यहां आए तो सिंध संस्कृति को भी अपने साथ लाए. इनमें सिंधी व्यंजन भी है. इंदौर की जयरमपुर कालोनी में सिंधी संस्कृति को आज भी मिठास के रूप में जीवंत रखा जा रहा है. परंपरागत मिठाइयों की दुकानों पर घीयर की बिक्री काफी हो रही है. घीयर के अलावा होली पर बनने वाली पारंपरिक मिठाई में पराकी और वर्की समोसा भी है. पराकी को आजकल मावा पेटिस भी कहा जाने लगा है. यह भी मैदे से बनने वाली मिठाई है. मैदे की कई पूड़ियों को एक के ऊपर एक रखकर मोटी परत बनाई जाती है. फिर उसे चौकोर काटकर ही बेला जाता है. इसके अंदर या तो कराची का हलवा या फिर मावे को सेंककर उसमें शकर मिलाकर उसकी स्टफिंग गुझिया की तरह की जाती है. इसके बाद इसे तला जाता है. ऐसा ही है वर्की समोसा यानी मावा समोसा. इसमें मावा भरा जाता है और तलने के बाद इसे भी चाशनी में डाला जाता है. यह मिठाई  300 रुपये किलो बेचा जाता है.

हर समाज को पसंद है
दिलीप बताते हैं कि वक्त के साथ इनके नाम और रंगत में बदलाव आया। वर्की समोसे को मावा समोसा कहा जाने लगा. यही नहीं अब मावा कचौरी और गुझिया भी बनाई जाने लगी है और इंदौर में यह बदलाव खासा पसंद भी किया जा रहा है. सिंधी ही नहीं बल्कि हर समाज को पसंद है, ये पकवान.

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