हिंदी-उर्दू के अजीम शायर और गीतकार निदा फाज़ली की वो मशहूर गज़लें, जो दिल के जज़्बातों को जुबान दे जाती हैं

[ad_1]

महत्वपूर्ण आधुनिक शायर और फ़िल्म गीतकार निदा फाज़ली का नाम ज़ेहन में आते ही उनकी सबसे लोकप्रिय गज़ल ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’ याद आती है. उन्हें हिंदी-उर्दू के उन चंद अजीम शायरों और गीतकारों में शुमार किया जाता है, जिनकी हर पंक्ति लफ्ज़ों की जन्नत में अनायास खींच ले जाती है. प्रतिगतिशील वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे निदा फ़ाज़ली को पूरी ज़िंदगी हर तबके से मोहब्बत मिली और उनके गीतों-गज़लों को बहुत ज्यादा पसंद किया गया.

निदा फाज़ली शायरी में डूबे उस शख्स का नाम है, जिसकी शायरी से रसखान, रहीम, तुलसी, गालिब और सूर के पदों की खुशबू बरसती है. निदा साहब बहुत कम उम्र से ही लिखने लगे थे. कॉलेज के दिनो से ही वे कवि सम्मेलन या मुशायरे के मंचों पर शायरी करते थे. जब वो शायरी करते थे, लोगों की भीड़ लग जाती थी, ऐसा कहा जाता है कि उन्हें सुनने वालों में जितने पुरुष प्रशंसक थे उससे कहीं ज्यादा महिलाएं थीं. लोग उन्हें घंटों तक सुन सकते थे और उनकी गज़लों में खो जाते थे. मंच पर सामने बैठ कर उन्हें सुनना किसी जादू जैसा होता था. आम से शब्दों में इतने सारे अर्थ भरना, इतने सारे भाव पिरोना और उन्हें इतने सलीके से कहना निदा फाज़ली ही कर सकते थे. जिंदगी के अनमोल फलसफे उनकी कलम से निकल पाए तो शायद इसीलिए कि वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे. वो किसी के जैसे नहीं थे, खुद के जैसे थे और किसी से भी कम नहीं थे. उनका हर अंदाज सूफियाना और जिंदगी का हर रंग शायराना था.

12 अक्टूबर 1938 में दिल्ली में जन्में निदा फाज़ली का बचपन ग्वालियर में गुज़रा. साल 1964 में नौकरी की तलाश में वे मुंबई गए और फिर वहीं के होकर रह गए. मुंबई में रहते हुए उन्होंने उर्दू की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में लेखन के साथ-साथ टीवी और फिल्मों के लिए भी लिखा. उन्होंने अपने शुरुआती दिनों में ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लिट्ज’ के लिए लिखा, वहीं से उनके लिखने के अंदाज ने फिल्मी दुनिया के दिग्गजों को कायल किया और फिर बॉलीवुड से जो रिश्ता बना, हमेशा-हमेशा के लिए कायम गया और इनके शब्दों का जादू देश के हर व्यक्ति तक पहुंच गया. निदा साहब वो बेमिसाल शायर थे, जिन्होंने गज़लों, गीतों के अलावा दोहे और नज़्में भी लिखीं और पूरी दुनिया ने उन्हें सराहा. उनका असली नाम मुक़्तदा हसन था, लेकिन उन्होंने अपना लेखन निदा फ़ाज़ली नाम से किया. निदा का अर्थ होता है ‘आवाज़’ और ‘फ़ाज़िला’ क़श्मीर के एक इलाके का नाम है और इन्हीं दो लफ्जों ने उनका नाम पा लिया. गौरतलब है, कि निदा साहब के पुरखे फ़ाज़िला से ही ग्वालियर (म.प्र.) आए थे, इसलिए उन्होंने अपने नाम में फ़ाज़ली जोड़ लिया था. आइए पढ़ते हैं, निदा साहब की वे चुनिंदा गज़लें, जो दिल के जज़्बातों को जुबान दे जाती हैं…

1)
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमां नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहां उमीद हो इस की वहां नहीं मिलता

कहां चराग़ जलाएं कहां गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकां नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बां मिली है मगर हम-ज़बां नहीं मिलता

चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशां नहीं मिलता

-फिल्म: आहिस्ता आहिस्ता 1981

2)
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है

अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम
हर वक़्त का रोना तो बे-कार का रोना है

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

ये वक़्त जो तेरा है ये वक़्त जो मेरा है
हर गाम पे पहरा है फिर भी इसे खोना है

ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हंसना है न रोना है

आवारा-मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को
आकाश की चादर है धरती का बिछौना है

3)
घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे

घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगे
हर तरफ़ तेज़ हवाएं हैं बिखर जाओगे

इतना आसां नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करना
घर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे

शाम होते ही सिमट जाएंगे सारे रस्ते
बहते दरिया से जहां होगे ठहर जाओगे

हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैं
छत से दीवारें जुदा होंगी तो डर जाओगे

पहले हर चीज़ नज़र आएगी बे-मा’नी सी
और फिर अपनी ही नज़रों से उतर जाओगे

4)
मोहब्बत में वफ़ादारी से बचिए

मोहब्बत में वफ़ादारी से बचिए
जहां तक हो अदाकारी से बचिए

हर इक सूरत भली लगती है कुछ दिन
लहू की शो’बदा-कारी से बचिए

शराफ़त आदमियत दर्द-मंदी
बड़े शहरों में बीमारी से बचिए

ज़रूरी क्या हर इक महफ़िल में बैठें
तकल्लुफ़ की रवा-दारी से बचिए

बिना पैरों के सर चलते नहीं हैं
बुज़ुर्गों की समझदारी से बचिए

5)
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहां बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज धुआं धुआं है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो

यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

Tags: Books, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature

[ad_2]

Source link