मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें, मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं : जौन एलिया

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जौन एलिया पाकिस्तान के अग्रणी आधुनिक शायरों में से एक हैं, जो अपने अपारंपरिक अंदाज़ के लिए ख़ासा मशहूर हैं. 14 दिसंबर 1931 में जन्मे जौन की रचनाओं में वो बात थी, जो आज भी लोगों को अपनी ओर खींचती है. उन्होंने 8 साल की उम्र में अपना पहला उर्दू शेर लिखा, लेकिन पहला काव्य संग्रह ‘हो सकता है’ 60 बरस की उम्र में जाकर प्रकाशित हुआ. उनके काव्य के अन्य खंड उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुए. जौन उन पाकिस्तानी शायरों में हैं, जिन्हें गूगल पर सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है. अंग्रेजी, फारसी, संस्कृत, अरबी और उर्दू पर उनकी अच्छी पकड़ थी. उन्हें दर्द और दुख के शायर के रूप में जाना जाता है. दर्द, प्रेम, उदासी और खुद्दारी उनकी रचनाओं में साफ तौर पर झलकते हैं. लंबे समय तक बीमारी से लड़ने के बाद जौन ने साल 2002 में दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन जाने के बाद वे आज भी युवाओं के बीच सबसे लोकप्रिय शायर हैं. सोशल मीडिया के इस दौर में उनकी शायरियां अक्सर नौजवानों के बीच घूमती रहती हैं. बात उनकी गज़लों की हो, शेरों की हो या फिर नज़्मों की, उन्हें पढ़ते हुए हमेशा ऐसा महसूस होता है मानो जौन अपने लफ्ज़ों के ज़रिए दिल के बोझ को हल्का करने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि सच भी है. लेकिन दिल के बोझ को हल्का करने में कभी कामयाब न हो सके शायद.

विभाजन के समय जौन करीब 16 साल के थे. वामपंथ विचारधारा से जुड़े जौन एलिया हमेशा विभाजन के विरोध में रहे, लेकिन आखिर में उन्होने विभाजन को एक समझौते के तौर पर लिया और बंटवारे के करीब 10 साल बाद उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में स्थित अपनी जन्मस्थली को छोड़ हमेशा-हमेशा के लिए पाकिस्तान के कराची शहर में जा बसे. जौन पाकिस्तान तो चले गए, लेकिन हिंदुस्तान में उनके चाहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती ही रही. कई बड़े शायरों का यह मानना रहा है कि जौन भले ही पाकिस्तान जाकर बस गए हों, लेकिन उनका दिल हमेशा हिंदुस्तान के लिए धड़कता रहा. जौन हर साल अपने शहर अमरोहा आते थे और आदिल अमरोहवी के घर पर रुका करते थे. एक उर्दू पत्रिका में संपादक बने रहने के दौरान जौन ने उर्दू लेखिका जाहिदा हिना से शादी की, तीन बच्चे भी हुए, लेकिन यह रिश्ता लंबा ना चल सका और साल 1984 में उनका तलाक हो गया. बस इसी के बाद से जौन गमज़दा हो गए और यह गम उनकी रचनाओं से आखिरी समय तक लिपटा रहा, जो उनकी शेरों में हमेशा नज़र आता है.

जौन एलिया की रचनाएं मनुष्य के अस्तित्व की जटिलताओं में बहुत कुछ खोजते हुए, जीवन, प्रेम और आध्यात्मिकता की बहुरंगी परतों को सुलझाती हैं. जौन की नज़्मों की विशेषता उनकी अस्पष्टता और भावनाओं की तीव्रता है. उनकी रचनाओं में घनघोर दुख है, जो उनकी व्यक्तिगत लड़ाइयों के संघर्ष को कठोरता से प्रतिबिंबित करता है. भावनाओं को सरलता और स्पष्टता के साथ व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता थी जौन के पास. उन्होंने एक समृद्ध शब्दावली और जटिल चित्रावली का उपयोग किया.

जौन एलिया अपनी नज़्मों में शब्दों को मिलाकर भावनाओं का एक जाल-सा बुनते हैं, जो पाठकों के साथ गहरा संबंध स्थापित करता है. कहीं-कहीं उनकी नज़्में सामाजिक और राजनीतिक टकराव को भी दर्शाती हैं, जिसका पाठ उन्होंने साहित्यिक मंच पर बहादुरी के साथ किया. समाज में मौजूदा ऐसे आदर्शवादी विचारों पर उन्होंने हमेशा सवाल किया, जो गलत नियम-कायदों को प्रचारित और प्रसारित करते हैं. उनकी नज़्में दिल और दिमाग दोनों को छूती हैं और सोचने के लिए छोड़ देती हैं. जौन समय और भाषा की सीमाओं से परे थे.

जौन एलिया की नज़्मों का वास्तविक महत्त्व समझना है, तो पहले उन्हें अपने आंतरिक अनुभवों के साथ साझा करना ज़रूरी हो जाता है, तभी जाकर उनके सवालों और संघर्षों को महसूस किया जा सकता है. आइए पढ़ते हैं जौन एलिया की वे चुनिंदा नज़्में, जिनमें उनकी अभिव्यक्ति बेहद प्रभावशाली है…

1)
दरीचा-हा-ए-ख़याल
चाहता हूं कि भूल जाऊं तुम्हें
और ये सब दरीचा-हा-ए-ख़याल
जो तुम्हारी ही सम्त खुलते हैं
बंद कर दूं कुछ इस तरह कि यहां
याद की इक किरन भी आ न सके

चाहता हूं कि भूल जाऊं तुम्हें
और ख़ुद भी न याद आऊं तुम्हें
जैसे तुम सिर्फ़ इक कहानी थीं
जैसे मैं सिर्फ़ इक फ़साना था

2)
अजनबी शाम
धुंद छाई हुई है झीलों पर
उड़ रहे हैं परिंद टीलों पर
सब का रुख़ है नशेमनों की तरफ़
बस्तियों की तरफ़ बनों की तरफ़

अपने गल्लों को ले के चरवाहे
सरहदी बस्तियों में जा पहुंचे
दिल-ए-नाकाम मैं कहां जाऊं
अजनबी शाम मैं कहां जाऊं

3)
सज़ा
हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुम से मिल के बिछड़ता रहा हूं मैं
तुम कौन हो ये ख़ुद भी नहीं जानती हो तुम
मैं कौन हूं ये ख़ुद भी नहीं जानता हूं मैं
तुम मुझ को जान कर ही पड़ी हो अज़ाब में
और इस तरह ख़ुद अपनी सज़ा बन गया हूं मैं

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
पस सर-ब-सर अज़िय्यत ओ आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िंदगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहां के साया ओ परतव से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तिदा-ए-इश्क़ से बे-मेहर ही रहा
तुम इंतिहा-ए-इश्क़ का मेआ’र ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैं ने ये कब कहा था मोहब्बत में है नजात
मैं ने ये कब कहा था वफ़ादार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मिरे लिए
बाज़ार-ए-इल्तिफ़ात में नादार ही रहो

जब मैं तुम्हें नशात-ए-मोहब्बत न दे सका
ग़म में कभी सुकून-ए-रिफ़ाक़त न दे सका
जब मेरे सब चराग़-ए-तमन्ना हवा के हैं
जब मेरे सारे ख़्वाब किसी बेवफ़ा के हैं
फिर मुझ को चाहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं
तन्हा कराहने का तुम्हें कोई हक़ नहीं

4)
नाकारा
कौन आया है
कोई नहीं आया है पागल

तेज़ हवा के झोंके से दरवाज़ा खुला है
अच्छा यूं है

बेकारी में ज़ात के ज़ख़्मों की सोज़िश को और बढ़ाने
तेज़-रवी की राहगुज़र से
मेहनत-कोश और काम के दिन की
धूल आई है धूप आई है
जाने ये किस ध्यान में था मैं
आता तो अच्छा कौन आता
किस को आना था कौन आता

5)
शायद
मैं शायद तुम को यकसर भूलने वाला हूं
शायद जान-ए-जां शायद

कि अब तुम मुझ को पहले से ज़ियादा याद आती हो
है दिल ग़मगीं बहुत ग़मगीं

कि अब तुम याद दिलदाराना आती हो
शमीम-ए-दूर-मांदा हो

बहुत रंजीदा हो मुझ से
मगर फिर भी

मशाम-ए-जां में मेरे आश्ती-मंदाना आती हो
जुदाई में बला का इल्तिफ़ात-ए-मेहरमाना है

क़यामत की ख़बर-गीरी है
बेहद नाज़-बरदारी का आलम है

तुम्हारे रंग मुझ में और गहरे होते जाते हैं
मैं डरता हूं

मिरे एहसास के इस ख़्वाब का अंजाम क्या होगा
ये मेरे अंदरून-ए-ज़ात के ताराज-गर

जज़्बों के बैरी वक़्त की साज़िश न हो कोई
तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से

दिल सहमा हुआ सा है
तो फिर तुम कम ही याद आओ

मता-ए-दिल मता-ए-जां तो फिर तुम कम ही याद आओ
बहुत कुछ बह गया है सैल-ए-माह-ओ-साल में अब तक

सभी कुछ तो न बह जाए
कि मेरे पास रह भी क्या गया है

कुछ तो रह जाए

6)
रम्ज़
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं

इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता

Tags: Books, Literature, Literature and Art, Pakistan

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