भारत-पाकिस्तान विभाजन और उसकी त्रासदी की गाथा कहती है भीष्म साहनी की कहानी ‘अमृतसर आ गया है

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हिन्दी लेखन में समाजोन्मुखता की लहर नवजागरण काल से ही उठनी शुरु हो गई थी. वाम लेखन ने उसमें केवल एक और आयाम जोड़ा था. इसी चिन्तन को मानवतावादी दृष्टिकोण से जोड़कर उसे जन-जन तक पहुंचाने वालों में एक थे भीष्म साहनी. उनके कथा साहित्य को काल की सीमा में बांध देना बिल्कुल उचित नहीं. स्वातन्त्र्योत्तर लेखकों की भांति भीष्म साहनी भी सहज मानवीय अनुभूतियों और तत्कालीन जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को सामने लेकर आए और उसे ही अपनी रचना का विषय बनाया. वाम चेतना के इस लेखक की सृजन-संवेदना का आधार हमेशा जनता का दुख रहा. जनसामान्य के प्रति समर्पित उनका लेखन यथार्थ की ठोस जमीन पर आज भी टिका हुआ है. वे एक ऐसे साहित्यकार थे, जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि उसके सच की गहराई को नाप लेना भी ज़रूरी समझते थे.

कहानी : ‘अमृतसर आ गया है’
गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे. मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे. वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हंसते और गोरे फौंजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे. डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपर वाली बर्थ पर लेटा हुआ था. वह आदमी बड़ा हंसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथ वाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मंजांक चल रहा था. वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे. मेरे सामने दायीं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुंह-सिर ढांपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी. यही कुछ लोग रहे होंगे. सम्भव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं.

गाड़ी धीमी रंफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसांफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूं के खेतों में हल्की-हल्की लहरियां उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होने वाला स्वतन्त्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था.

उन दिनों के बारे में सोचता हूं, तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे हैं. शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है. ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चलाजाताहै.

उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाये का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी. पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी. मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बम्बई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जाकर बस जाएंगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता—बम्बई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बम्बई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा. मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हंसी-मंजांक में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था. कुछ लोग अपने घर छोड़कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे. कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा गलत. एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिन्दुस्तान के आंजाद हो जाने का जोश. जगह-जगह दंगे भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयारियां भी चल रही थीं. इस पूष्ठभूमि में लगता, देश आंजाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बन्द हो जाएंगे. वातावरण में इस झुटपुट में आजादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी और साथ-ही-साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी.

शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था जब ऊपर वाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ मांस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकालकर अपने साथियों को देने लगा. फिर वह हंसी-मंजांक के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और मांस की बोटी बढ़ाकर खाने का आग्रह करने लगा था—”का ले, बाबू, ताकत आएगी. अम जैसा ओ जाएगा. बीवी बी तेरे सात कुश रएगी. काले दालकोर, तू दाल काता ए, इसलिए दुबला ए…”

डिब्बे में लोग हंसने लगे थे. बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा.

इस पर दूसरे पठान ने हंसकर कहा—”ओ जालिम, अमारे साथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले. खुदा कसम बर का गोश्त ए, और किसी चीज का नईए.”

ऊपर बैठा पठान चहककर बोला—”ओ खंजीर के तुम, इदर तुमें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा. ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़. अम तेरे साथ दाल पिएगा…”

इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हंसता, सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता.

“ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मुं देखता ए…” सभी पठान मगन थे.

“यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं,” स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे! अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी—”तुम अभी सोकर उठे हो और उठते ही पोटली खोलकर खाने लग गये हो, इसीलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं.” और सरदार जी ने मेरी ओर देखकर आंख मारी और फिर खी-खीकरनेलगे.

“मांस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैटो, इदर क्या करता ए?” फिर कहकहा उठा.

डब्बे में और भी अनेक मुसांफिर थे लेकिन पुराने मुसांफिर यही थे जो संफर शुरू होने में गाड़ी में बैठे थे. बाकी मुसांफिर उतरते-चढ़ते रहे थे. पुराने मुसांफिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतंकल्लुंफी आ गयी थी.

“ओ इदर आकर बैठो. तुम अमारे साथ बैटो. आओ जालिम, किस्सा-खानी की बातें करेंगे.”

तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नये मुसांफिरों का रेला अन्दर आ गया था. बहुत-से मुसांफिर एक साथ अन्दर घुसते चले आये थे.

“कौन-सा स्टेशन है?” किसी ने पूछा.

“वजीराबाद है शायद,” मैंने बाहर की ओर देखकर कहा.

गाड़ी वहां थोड़ी देर के लिए खड़ी रही. पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी. एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जाकर पानी लोटे में भर रहा था तभी वह भागकर अपने डिब्बे की ओर लौट आया. छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था. लेकिन जिस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता दिया था. नल पर खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे—इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गये थे. इस तरह घबराकर भागते लोगों को मैं देख चुका था. देखते-ही-देखते प्लेटफार्म खाली हो गया. मगर डिब्बे के अन्दर अभी भी हंसी-मजाक चल रहा था.

“कहीं कोई गड़बड़ है,” मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा.

कहीं कुछ था, लेकिन क्या था, कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था. मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तबदील को भी भांप गया था. भागते व्यक्ति, खटाक से बन्दर होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे.

तभी पिछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुलकर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ. कोई मुसांफिर अन्दर घुसना चाह रहा था.

“कहां घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया जगह नहीं है,” किसी ने कहा.

“बन्द करो जी दरवाजा. यों ही मुंह उठाए घुसे आते हैं.” आवांजें आ रही थीं.

जितनी देर कोई मुसांफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अन्दर आने की चेष्टा करता रहे, अन्दर बैठे मुसांफिर उसका विरोध करते रहते हैं. पर एक बार जैसे-तैसे वह अन्दर जा जाए तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसांफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसांफिरों पर चिल्लाने लगता है—नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ…घुसे आतेहैं…

दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था. तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूंछों वाला एक आदमी दरवांजे में से अन्दर घुसता दिखाई दिया. चीकट, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा. वह लोगों की शिकायतों-आवांजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाजे की ओर घूमकर बड़ा-सा काले रंग का सन्दूक अन्दर की ओर घसीटने लगा.

“आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था. तभी दरवांजे में एक पतली सूखी-सी औरत नंजर आयी और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की सांवली-सी एक लड़की अन्दर आ गयी. लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे. सरदार जी को कूल्हों के बल उठकर बैठना पड़ा.”

“बन्द करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है. मत घुसने दो जी, क्या करते हो, धकेल दो पीछे…” और लोग भी चिल्ला रहेथे.

वह आदमी अपना सामान अन्दर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी और बेटी संडास के दरवाजे के साथ लगकर खड़े थे.

“और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहां उठा लाया है?”

वह आदमी पसीने से तर था और हांफता हुआ सामान अन्दर घसीटे जा रहा था. सन्दूक के बाद रस्सियों से बंधी खाट की पाटियां अन्दर खींचने लगा.

“टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूं.” इस पर डिब्बे में बैठे बहुत-से लोग चुप हो गये, पर बर्थ पर बैठा पठान उचककर बोला—”निकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए.”

और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़कर ऊपर से ही उस मुसांफिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं ‘हाय-हाय’ करती बैठ गयी.

उस आदमी के पास मुसांफिरों के साथ उलझने के लिए वक्त नहीं था. वह बराबर अपना सामान अन्दर घसीटे जा रहा था. पर डिब्बे में मौन छा गया. खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियां आयीं. इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गयी. “निकलो इसे, कौन ए ये?” वह चिल्लाया. इस पर दूसरे पठान ने, जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का सन्दूक दरवाजे में से नीचे धकेल दिया, जहां लाल वर्दीवाला एक कुली खड़ा सामान अन्दर पहुंचा रहा था.

उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसांफिर चुप हो गये थे. केवल कोने में बैठो बुढ़िया करलाए जा रही थी—”ए नेक बख्तो, बैठने दो. आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा. जैसे-तैसे सफर काट लेंगे. छोड़ो बे जालिमो, बैठने दो.”

अभी आधा सामान ही अन्दर आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी.

“छूट गया! सामान छूट गया.” वह आदमी बदहवास-सा होकर चिल्लाया.

“पिताजी, सामान छूट गया.” संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की सिर से पांव तक कांप रही थी और चिल्लाए जा रही थी.

“उतरो, नीचे उतरो,” वह आदमी हड़बड़ाकर चिल्लाया और आगे बढ़कर खाट की पाटियां और गठरियां बाहर फेंकते हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़कर नीचे उतर गया. उसके पीछे उसकी व्याकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गयी.

“बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है.” बुढ़िया ऊंचा-ऊंचा बोल रही थी—”तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है. छोटी-सी बच्ची उसके साथ थी. बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है, धक्के देकर उतार दिया है.”

गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लांघती आगे बढ़ गयी. डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गयी. बुढ़िया ने बोलना बन्द कर दिया था. पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई.

तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रखकर कहा—”आग है, देखो आग लगी है.”

गाड़ी प्लेटफार्म छोड़कर आगे निकल आयी थी और शहर पीछे छूट रहा था. तभी शहर की ओर से उठते धुएं के बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नंजर आने लगे.

“दंगा हुआ है. स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे. कहीं दंगा हुआ है.”

शहर में आग लगी थी. बात डिब्बे-भर के मुसांफिरों को पता चल गयी और वे लपक-लपककर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे.

जब गाड़ी शहर छोड़कर आगे बढ़ गयी तो डिब्बे में सन्नाटा छा गया. मैंने घूमकर डिब्बे के अन्दर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी. मुझे लगा, जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसांफिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है. सरदार जी उठकर मेरी सीट पर आ बैठे. नीचे वाली सीट पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया. यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डिब्बों में भी चल रही थी. डिब्बे में तनाव आ गया. लोगों ने बतियाना बन्द कर दिया. तीनों-के-तीनों पठान ऊपरवाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे. सभी मुसाफिरों की आंखें पहले से ज्यादा खुली-खुली, ज्यादा शंकित-सी लगीं. यही स्थिति सम्भवत: गाड़ी के सभी डिब्बों में व्याप्त हो रही थी.

“कौन-सा स्टेशन था यह?” डिब्बे में किसी ने पूछा.

“वजीराबाद,” किसी ने उत्तर दिया.

जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई. पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया. जबकि हिन्दू-सिक्ख मुसांफिरों की चुप्पी और ज्यादा गहरी हो गयी. एक पठान ने अपनी वास्कट की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली और नाक में नसवार चढ़ाने लगा. अन्य पठान भी अपनी-अपनी डिबिया निकालकर नसवार चढ़ाने लगे. बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी. किसी-किसी वंक्त उसके बुदबुदाते होंठ नंजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवांज निकल रही है.

अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहां भी सन्नाटा था. कोई परिन्दा तक नहीं फड़क रहा था. हां, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशकल लादे, प्लेटफार्म लांघकर आया और मुसांफिरों को पानी पिलाने लगा.

“लो, पियो पानी, पियो पानी.” औरतों के डिब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आये थे.

“बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं. लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है.”

गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे. दूर-दूर तक, पहियों की गड़गड़ाहट के साथ, खिडक़ियों के पल्ले चढाने की आवांज आने लगी.

किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पास वाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया. उसका चेहरा अभी भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था. इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा—”ओ बेंगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उटकर नीचे लेटता ए. तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए.” वह बोल रहा था और बार-बार हंसे जा रहा था. फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा. बाबू चुप बना लेटा रहा. अन्य सभी मुसाफिर चुप थे. डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था.

“ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा. ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो.”

मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कण्ठ में सूख चली थी. हकलाकर चुप हो रहा. पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठकर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा. वह क्यों उठकर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे.

कुछ भी कहना कठिन था. मुमकिन है किसी एक मुसांफिर ने किसी कारण से खिडक़ी का पल्ला चढ़ाया हो. उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे. बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा. रात गहराने लगी थी. डिब्बे के मुसांफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे. कभी गाड़ी की रंफ्तार सहसा टूटकर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते. कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अन्दर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता. केवल पठान निश्चित बैठे थे. हां, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था.

धीरे-धीरे पठान ऊंघने लगे जबकि अन्य मुसांफिर फटी-फटी आंखों से शून्य में देखे जा रहे थे. बुढ़िया मुंह-सिर लपेटे, टांगें सीट पर चढ़ाए, बैठी-बैठी सो गयी थी. ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा.

खिड़की के बाहर आकाश में चांद निकल आया और चांदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी. किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नंजर आते, कोई नगर जल रहा था. गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रंफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रंफ्तार से ही चलती रहती.

सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देखकर ऊंची आवांज में बोला—”हरबंसपुरा निकल गया है.” उसकी आवांज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीखकर बोला था. डिब्बे के सभी लोग उसकी आवांज सुनकर चौंक गये. उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसांफिरों ने मानो उसकी आवांज को ही सुनकर करवट बदली.

“ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?”, तसबीह वाला पठान चौंककर बोला—”इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूं?” अैर खी-खी करके हंस दिया. जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था.

बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देखकर फिर खिड़की के बाहर झांकने लगा.

डब्बे में फिर मौन छा गया. तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रंफ्तार टूट गयी. थोड़ी ही देर बाद खटाक्-का-सा शब्द भी हुआ. शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी. बाबू ने झांककर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी.

“शहर आ गया है.” वह फिर ऊंची आवांज में चिल्लाया—”अमृतसर आ गया है.” उसने फिर से कहा और उछलकर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को सम्बोधित करके चिल्लाया—”ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी मां की…नीचे उतर, तेरी उस पठान बनाने वाले की मैं… “

बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीखकर गालियां बकने लगा था. तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देखकर बोला—”ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला?” बाबू को उत्तेजित देखकर अन्य मुसांफिर भी उठ बैठे.

“नीचे उतर, तेरी मैं…हिन्दू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस….”

“ओ बाबू, बक-बकर् नई करो. ओ ख्रजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया. अम तुम्हारा जबान खींच लेगा.”

“गाली देता है मादर….” बाबू चिल्लाया और उछलकर सीट पर चढ ग़या. वह सिर से पांव तक का/प रहा था.

“बस-बस.” सरदार जी बोले—”यह लड़ने की जगह नहीं है. थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो.”

“तेरी मैं लात न तोडूं तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?” बाबू चिल्लाया.

“ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला. ये इदर अमको गाली देता ए. अम इसका जबान खींच लेगा.”

बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी—”वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो. वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो.”

उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी.

बाबू चिल्लाए जा रहा था—”अपने घर में शेर बनता था. अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनाने वाले की….”

तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी. प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था. प्लेटफार्म पर खडे लोग झांक-झांक कर डिब्बों के अन्दर देखने लगे. बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे—”पीछे क्या हुआ है? कहा/ पर दंगा हुआ है?”

खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है. प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोंमचे वालों पर मुसांफिर टूटे पड़ रहे थे. सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी. इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गये और खिड़की में से झांक-झांक कर अन्दर देखने लगे. अपने पठान साथियों पर नंजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे. मैंने घूमकर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था. न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था. मेरा माथा ठिनका. गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था. न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठाकर बाहर निकल गये और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गये. जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था.

खोंमचे वालों के इर्द-गिर्द भीड़ छंटने लगी. लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे. तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया. उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी. नजदीक पहुंचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएं हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी. जाने वह उसे कहां मिल गयी थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया. सीट पर बैठते ही उसकी आंखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं. पर डिब्बे में पठानों को न पाकर वह हड़बड़ाकर चारों ओर देखने लगा.

“निकल गये हरामी, मादर…सब-के-सब निकल गये!” फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्लाकर बोला—”तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!”

पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी. बहुत-से नये मुसांफिर आ गये थे. किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया.

गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था.

धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी. डिब्बे में पुराने मुसांफिरों ने भरपेट पूरियां खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहां उनके जान-माल को खतरा नहीं था.

नये मुसांफिर बतिया रहे थे. धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी. कुछ ही देर बाद लोग ऊंघने भी लगे थे. मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आंखों से सामने की ओर देखे जा रहा था. बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकलकर किस ओर को गये हैं. उसके सिर पर जनून सवार था.

गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊंघने लगा था. डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी. बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को. किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते. अमृतसर पहुंचने के बाद सरदार जी फिर से सामने वाली सीट पर टांगे पसारकर लेट गये थे. डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे. उनकी बीभत्स मुद्राओं को देखकर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है. पास बैठे बाबू पर नंजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुंह किये देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तनकर बैठा नजर आता.

किसी-किसी वंक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गडग़ड़ाहट बन्द होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती. तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसांफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठकर बैठ जाता.

इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रंफ्तार धीमी पड़ गयी थी, और डिब्बे में अ/धेरा था. मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा. दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे. स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लांघ कर आयी थी. पर अभी तक उसने रंफ्तार नहीं पकड़ी थी.

डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए. दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नंजर आया. नींद की खुमारी में मेरी आंखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया. डिब्बे के अन्दर अंधेरा था, बत्तियाम् बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है.

मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोचने की-सी आवांज आयी. मैंने दरवांजे की ओर घूमकर देखा. डिब्बे का दरवांजा बन्द था. मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवांज सुनाई दी. फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था. मैंने झांककर खिड़की के बाहर देखा. सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियां चढ़ आया था. उसके कन्धे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी. फिर मेरी नंजर बाहर नीचे की ओर आ गयी. गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पांव, और उसने दो गठरियां उठा रखी थीं. बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था. डिब्बे के पायदान पर खडा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़कर देख रहा था और हांफता हुआ कहे जा रहा था—”आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!”

दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवांज आयी—”खोलो जी दरवांजा, खुदा के वास्ते दरवांजा खोलो.”

वह आदमी हांफ रहा था—”खुदा के लिंजए दरवाजा खोलो. मेरे साथ में औरत जात है. गाड़ी निकल जाएगी…”

सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जाकर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुंह बाहर निकालकर बोला—”कौन है? इधर जगह नहीं है.”

बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा—”खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो. गाड़ी निकल जाएगी….”

और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अन्दर डालकर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा.

“नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से.” बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपककर दरवांजा खोल दिया.

“या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए. दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की सांस ली हो.”

और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा. एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसांफिर के सिर पर किया था. मैं देखते ही डर गया और मेरी टांगें लरज गयीं. मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ. उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे. कन्धे पर से लटकती गठरी खिसटकर उसकी कोहनी पर आ गयी थी.

तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं. मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दांत नंजर आये. वह दो-एक बार ‘या अल्लाह!’ बुदबुदाया, फिर उसके पैर लडख़ड़ा गये. उसकी आंखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुंदी-सी आंखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है. इस बीच अंधेरा कुछ और छन गया था. उसके होंठ फिर से फड़फड़ाये और उनमें सफेद दांत फिर से झलक उठे. मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे.

नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी. उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है. वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है. वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी.

तभी सहसा डण्डहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गये और वह कटे पेड़ की भांति नीचे जा गिरा. और उसके गिरते ही औरत न भागना बन्द कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो.

बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड अभी भी उसके हाथ में थी. मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंके देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था. मेरी सांस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अंधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सटकर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था.

फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला. किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवांजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा. गाड़ी आगे निकलती जा रही थी. दूर, पटरी के किनारे अंधियारा पुंज-सा नंजर आ रहा था.

बाबू का शरीर हरकत में आया. एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया. फिर घूमकर डिब्बे के अन्दर दाएं-बाएं देखने लगा. सभी मुसांफिर सोये पड़े थे. मेरी ओर उसकी नंजर नहीं उठी.

थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूमकर दरवांजा बन्द कर दिया उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जाकर उन्हें सूंघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है. फिर वह दबे पांव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया.

धीरे-धीरे झुटपुटा छंटने लगा, दिन खुलने लगा. साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी. किसी ने जंजीर खींचकर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खाकर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी. सामने गेहूं के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियां उठने लगी थीं.

सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे. मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था. रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आये थे. अपने सामने बैठा देखकर सरदार उसके साथ बतियाने लगा—”बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो. बड़ी हिम्मत दिखायी है. तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गये. यहां बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते…” और सरदार जी हंसने लगे.

बाबू जवाब में मुसकराया—एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा.

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