नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पाब्लो नेरुदा की चुनिंदा प्रेम कविताएं

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कविताओं के बारे में पाब्लो नेरुदा कहते थे, “एक कवि को भाइचारे और एकाकीपन के बीच एवं भावुकता और कर्मठता के बीच, व अपने आप से लगाव और समूचे विश्व से सौहार्द व कुदरत के उद्घघाटनो के बीच संतुलित रह कर रचना करना जरूरी होता है और वही कविता होती है.” पाब्लो नेरुदा ने प्रेम, समय, विनाश और अकेलेपन जैसे विषयों पर गहरी रिसर्च की, जो उनकी कविताओं में साफ तौर पर दिखाई पड़ता है. उनकी कविताओं में सद्भाव भी है और वेदना भी. प्रेम के साथ-साथ उनकी कविताएं राजनीतिक, सामाजिक, अलगाव, साम्यवाद और दमन के विचारों से भी ओत-प्रोत हैं. आइए पढ़ते हैं पाब्लो नेरूदा की पांच प्रेम कविताएं, जिसका अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद अशोक पाण्डे ने किया है…

पाब्लो नेरुदा की पांच प्रेम कविताएं-

1)
एक स्त्री की देह
एक स्त्री की देह, धवल पहाड़ियां, धवल जंघाएं
तुम दिखाई देती हो एक समर्पणरत दुनिया जैसी
मेरी ऊबड़ – खाबड़ कृषक देह गड़ती है तुम में
और धरती की गहराइयों से पुत्र उपजाती है .

मैं अकेला था किसी सुरंग सरीखा, चिड़ियां उड़ गई मेरे भीतर से .
और अपने विनाशकारी आक्रमण से रात ने आप्लावित कर दिया मुझे .
अपने को बचाने के लिए मैंने तुम्हें किसी हथियार की मानिन्द गढ़ा .
मेरे धनुष के लिए जैसे एक तीर, एक पत्थर गोया मेरी गुलेल में .

लेकिन प्रतिशोध का पल चला आता है, और मैं तुमसे प्रेम करता हूं .
त्वचा और काई की देह . उत्सुक और ठोस दूध की !
उफ़ ! स्तनों के प्याले ! उफ़ ! अनुपस्थिति की आंख !
उफ़ ! स्त्रीत्व के गुलाब ! उफ़ ! धीमी और उदास तुम्हारी आवाज़ !

मेरी स्त्री की देह, मैं बना रहूंगा तुम्हारी गरिमा में,
मेरी प्यास, मेरी असीम इच्छा, जगह छोड़ती मेरी सड़क !
अन्धेरे नदी तट जहां बहती है एक अमर प्यास .
और पीछे – पीछे आती है थकान, और एक अनन्त वेदना .

2)
तुम्हें याद करता हूं तुम जैसी थीं
तुम्हें याद करता हूं. तुम जैसी थीं पिछले शरद में .
तुम थीं, स्लेटी टोपी और ठहरा हुआ हृदय .
तुम्हारी आंखों में गोधूलि की लपटें लगातार लड़ा करती थीं .
और पत्तियां गिरा करती थीं तुम्हारी आत्मा के जल में .

चढ़ते हुए पौधे की तरह कसकर भींचे मेरी बांह
पत्तियां इकट्ठा किया करती थीं तुम्हारी आवाज़ को, जो धीमी थी और विश्रान्त
तुम्हारे रूआब की आग जिसमें मेरी प्यास जल रही थी
एक मीठी नीली मणि गुंथ गई मेरी आत्मा में .

मैं तुम्हारी आंखों को यात्रा करते हुए महसूस कर सकता हूं, और शरद अभी बहुत दूर :
स्लेटी टोपी, एक चिड़िया की आवाज़, घर जैसा एक दिल
जिसकी दिशा में प्रवास के लिए निकल पड़ीं मेरी गहन चिन्ताएं
और प्रसन्न चिंगारियों की तरह गिरे मेरे चुम्बन .

एक समुद्री जहाज़ से आसमान . पहाड़ियों से खेत :
तुम्हारी स्मृति बनी है एक ठहरे हुए तालाब की रोशनी और धुएं से !
तुम्हारी आंखों के आगे , और आगे, शामें दहक रही थीं .
सूखी, शरद की पत्तियां घूम रही थीं तुम्हारी आत्मा में .

3)
ताकि तुम मुझे सुन सको
ताकि तुम मुझे सुन सको
मेरे शब्द
कभी – कभी झीने हो जाते हैं
समुद्र – तट पर बत्तखों के रास्तों सरीखे .

कण्ठमाल, जैसे नशे में धुत्त एक घण्टी
अंगूरों जैसे मुलायम तुम्हारे हाथों के लिए .
और मैं बहुत दूर से अपने शब्दों को देखता हूं
मुझसे ज़्यादा वे तुम्हारे हैं
मेरी पुरातन यातना पर वे बेल की तरह चढ़ते जाते हैं .
वह भीगी दीवारों पर भी इसी तरह चढ़ती है .
इस क्रूर खेल का दोष तुम्हारा है .
वे जा रहे हैं मेरी अन्धेरी मांद छोड़कर
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो .

तुमसे पहले वे उस अकेलेपन में रहा करते थे, जिसमें अब तुम हो
और उन्हें तुमसे ज़्यादा आदत है मेरी ख़ामोशी की .
अब मैं चाहता हूं वे कहें वो, जो मैं तुमसे कहना चाहता हूं
तुम्हें वह सुनाएं, जैसे मैं चाहता हूं, मुझे तुम सुनो .

पीड़ा की हवा के थपेड़े अब भी उनपर पड़ते हैं सदा की तरह
कभी – कभी स्वप्नों के अंधड़ अब भी उन्हें उलटा देते हैं
मेरी दर्दभरी आवाज़ में तुम दूसरी आवाज़ें सुनती हो .

पुरातन मुंहों के रुदन, पुरातन याचनाओं का रक्त
मुझे प्रेम करो, साथी, मुझे छोड़ो मत . मेरा पीछा करो
मेरा पीछा करो, साथी ! वेदना की इस लहर पर .

लेकिन मेरे शब्दों पर तुम्हारे प्रेम के धब्बे लग जाते हैं
तुम हर चीज़ को भर रही हो, तुम हर चीज़ को भर रही हो .

मैं उन्हें बदल रहा हूं एक अन्तहीन हार में
तुम्हारे सफ़ेद, अंगूरों जैसे मुलायम हाथों के लिए .

4)
हम खो चुके
हम खो चुके इस गोधूलि तक को
एक – दूसरे का हाथ थामे हमें किसी ने नहीं देखा इस शाम
जबकि नीली रात गिरी दुनिया पर

मैंने अपनी खिड़की से देखा है
सुदूर पर्वतशिखरों पर सूर्यास्त का उत्सव
कभी – कभी सूरज का एक टुकड़ा
जला किया मेरे हाथों के बीच सिक्के की मानिन्द

मैंने तुम्हें याद किया अपनी आत्मा को भींचे
अपनी उस उदासी में, जिसे तुम जानती हो

कहां थीं तुम तब ?
और कौन था वहां ?
क्या कहता हुआ ?
क्यों आएगा यह सारा प्रेम मुझ तक अकस्मात्
जब मैं उदास हूं और मुझे लगता है कि तुम दूर ?

गोधूलि के वक़्त हमेशा देखी जाने वाली वह किताब गिर गई
और मेरी पोशाक किसी घायल कुत्ते की तरह लिपट गई मेरे पैरों पर

हमेशा, हमेशा दूर जाती रहती हो शामों से गुज़रती तुम
वहां जहां गोधूलि प्रतिमाओं को मिटाती चलती है .

5)
मेरे दिल के वास्ते
मेरे दिल के वास्ते पर्याप्त है तुम्हारा सीना
और तुम्हारी आज़ादी के वास्ते मेरे पंख
वह जो सोया हुआ था तुम्हारी आत्मा पर,
मेरे मुंह के रास्ते उठता जाएगा स्वर्ग तलक ….

तुम में है हर दिन का भ्रम .
तुम पहुंचती हो ओस की तरह बन्द पंखुड़ी वाले फूलों तक .
अपनी अनुपस्थिति से तुम बना देती हो क्षितिज को अधूरा
लहर की तरह अनन्त उड़ान में .

मैं कह चुका हूं कि तुम गाती थीं हवा में
चीड़ की तरह और मस्तूलों की तरह
उन्हीं की तरह तुम हो ऊंचे क़द वाली और मितभाषी .
और तुम उदास हो, सब कुछ एक साथ, एक लम्बी यात्रा की मानिन्द .

पुरानी सड़क की तरह तुम इकट्ठा करती हो चीज़ें
अपने भीतर तुम अनुगूंजों की उदास ध्वनियों से भरी हुई हो
मैं जागा और कभी – कभी चिड़ियां उड़कर परदेस चली गईं
जो सो रही थीं तुम्हारी आत्मा में .

Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Literature, Literature and Art

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