आनंद बक्शी के जीवन के अनकहे किस्से बयां करती किताब ‘नग़मे किस्से बातें यादें’ को मिला लोगों का भरपूर प्यार

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कहते हैं – भावनाओं को शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता, लेकिन जब भावनाएं शब्दों का रूप धरती हैं तो एक-एक शब्द बोलने लगता है. यह कहावत बॉलीवुड के मूर्धन्य गीतकार आनंद बक्शी की जीवनी पर आधारित पुस्तक ‘नग्मे किस्से बातें यादें’ पर अक्षरशः चरितार्थ होती है. 6,500 से भी अधिक कालजयी गीतों की रचना करने वाले शब्दों के सारथी आनंद बक्शी के सुपुत्र राकेश आनंद बक्शी ने इस पुस्तक को उनके अविस्मरणीय संस्मरणों से सजाया है. बाजार में अभी पहला ही संस्करण आया है और लोगों का इसे भरपूर प्यार मिल रहा है.

इस पत्रकार श्रीराम शॉ से एक विशेष भेंटवार्ता के दौरान राकेश आनंद बक्शी ने इस पुस्तक-रचना के नेपथ्य के प्रसंगों और स्मृतियों पर प्रकाश डालते हुए बताया – “पिता आनंद बक्शी की जीवनी लिखने की प्रेरणा सबसे पहले मुझे उनके दीवानों, करीबी दोस्तों, और मेरी पहली किताब के प्रकाशक शांतनु रॉय चौधरी ने 2012 में दी थी. मैंने शांतनु से कहा था कि मैं 2002 से ही इस पर काम कर रहा हूं और मैंने 150 पेज तो लिख भी लिए हैं. पर मैं ये तभी भेज सकूंगा जब मैं अपने नाम से कोई पुस्तक लिख लूंगा या कोई फिल्म बना लूंगा. क्योंकि डैडी हमेशा मुझसे कहते थे – मेरे दुनिया से जाने के बाद तब तक मेरे नाम पर कुछ मत करना जब तक कि तुम अपने नाम से कुछ नया रच न लो. और, अपना कुछ रचने में मुझे 50 साल लग गए. एक लेखक के रूप में मेरी किताब आई, “डायरेक्टर डायरीज – द रोड टू देअर फर्स्ट फिल्म”. ये किताब 2015 में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद ही मैंने आनंद बक्शी की जीवनी के लिए प्रकाशक खोजना शुरू किया और आखिरकार पेंगुइन रैंडम हाउस से इसका अंग्रेजी संस्करण छपकर आपके सामने आया.”

जैसा कि इस पुस्तक के नाम “नगमे किस्से बातें यादें” से ही स्पष्ट है कि यह कई गीतों की रचना के सन्दर्भों, अनकहे किस्सों और यादों को अपने में समाहित किये हुए है. इसमें आनंद बक्शी के समकालिक फ़िल्मी-लेखकों, गीतकारों जैसे सलीम खान, जावेद अख्तर और कुछ परिजनों के सारगर्भित विचारों को भी यथोचित स्थान प्राप्त हुआ है. कई अर्थपूर्ण और रोचक जानकारियां राकेश आनंद बक्शी द्वारा लिखी इस पुस्तक ‘नगमे किस्से बातें यादें’ में मिलती हैं. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी इस किताब का यूनुस खान (आकाशवाणी मुंबई में उद्घोषक) द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद अद्विक प्रकाशन ने प्रकाशित किया है.

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राकेश आनंद बक्शी ने इस किताब में इस बात का भी जिक्र किया है जब उनके डैडी को एक फिल्म देखकर ऐसा लगा था कि एक गीतकार के तौर पर उन्होंने ठीक काम नहीं किया है, वो फिल्म थी – ‘अंधा कानून’. इस फिल्म का हीरो गाता है – ‘रोते-रोते हँसना सीखो, हँसते-हँसते रोना, जितनी चाभी भरी राम ने, उतना चले खिलौना.’ हीरो हिंदू नहीं है और वो हिंदू देवता का नाम लेता है. डैडी ने उन्हें बताया था- ‘मुझसे गलती हो गई थी कि गाना लिखने से पहले मैंने निर्देशक से हीरो के किरदार का नाम और उसका मजहब नहीं पूछा था. निर्देशक जब मुझे कहानी सुना रहा था तो वो अमिताभ बच्चन के नाम से सुना रहा था. मुझे अगर पता होता कि अमिताभ बच्चन फिल्म में एक मुस्लिम किरदार निभा रहे हैं तो मैं उस किरदार की तहजीब और उसके मजहब के मुताबिक गाना लिखता.’

वैसे भारतीय संस्कृति में सदियों से एक धर्म-निरपेक्षता चली आ रही है, वो हमारे अवचेतन मन में समाई है. बक्शी साहब का कहना था कि अगर निर्देशक उन्हें बताता कि फिल्म का हीरो धर्मनिरपेक्ष है तब जरूर वो गाने में ये जुमला लिखते, क्योंकि तब ये किरदार की मांग होती. अगर ऐसा नहीं है तो ये उनकी नाकामी है.

सुधि पाठकों और आनंद बक्शी के चाहने वालों से भावपूर्ण अपील करते हुए राकेश आनंद बक्शी ने कहा, “मुझे इंतज़ार रहेगा आप पाठकों, बक्शी साहब के दीवानों और पत्रकारों की प्रतिक्रियाओं और सुझावों का, उन तमाम लोगों का जिन्होंने बक्शी साहब पर काम किया है या जो उनके गानों को जानते हैं. गाने से जुड़ी उन घटनाओं का भी इंतज़ार रहेगा जिनके बारे में आप को पता है और जो इस किताब के इस पहले संस्करण में शामिल नहीं हो सके हैं. हम आपके सुझाव के आधार पर पुस्तक को और भी बेहतर बनाएंगे और अगले संस्करण में आपके वेशकीमती सुझावों को शामिल कर पाएंगे. आनंद बक्शी के व्यक्तित्व और कृतित्व को एक पुस्तक में समेटने की ये हमारी पहली कोशिश है.”

राकेश आनंद बक्शी कहते हैं, “इस पुस्तक को लिखने के दौरान मैंने जो सबसे बड़ा सबक सीखा है वो है अपने परिवार के महत्व को और ज़्यादा समझना. अगर दुनिया में सिर्फ आपको ही खुद पर और अपने ख्वाबों पर भरोसा है, अपनी मज़िल पर भरोसा है, अपनी महत्वाकांक्षा पर भरोसा है, तो भी आपको बढ़ते चले जाना चाहिए, भले ही आप अकेले ही क्यों न हों.”

सत्तर और अस्सी के दशक में आनंद बक्शी हिंदी सिनेमा के सबसे लोकप्रिय गीतकार थे. राजेश खन्ना से लेकर अमिताभ बच्चन तक उनके लिखे गाने परदे पर गुनगुना रहे होते. इनके अलावा भी उस समय की लगभग सभी हिट फिल्मों के गीत उनके द्वारा ही लिखे जा रहे थे. मनमोहन देसाई की सभी फिल्मों के गीत भी वही लिख रहे थे. लेकिन इससे पहले फौज की नौकरी छोड़कर उन्होंने बंबई (अब मुंबई) में एक लंबा संघर्ष किया.

आनंद बक्शी का जन्म 21 जुलाई, 1930 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में हुआ था. जब वे छह वर्ष के थे तभी मां की मृत्यु हो गई थी. उनके खानदान में सारे लोग पुलिस में थे या फौज में या जमींदार थे.

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1944 में वे रॉयल इंडियन नेवी में कराची बंदरगाह पर बॉय 1 के रूप में भर्ती हुए और 5 अप्रैल, 1946 तक वहां रहे. इस बीच भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय उनका परिवार 2 अक्टूबर, 1947 को दिल्ली पहुंचा. 15 नवंबर, 1947 से 1950 के बीच फौज में नौकरी करते हुए आनंद बक्शी ने पहली बार कविताएं लिखनी शुरू कीं. कविताओं के नीचे दस्तखत में उनका पूरा नाम होता आनंद प्रकाश बख्शी. 1956 में फौज की नौकरी छोड़कर वो मुंबई गीतकार बनने के पक्के इरादे से पहुंचे. यह बंबई में किस्मत आजमाने की उनकी दूसरी कोशिश थी. उस समय उनके पास करीब 60 कविताओं का खजाना था. वे अकेले आए थे. उनकी पत्नी दिल्ली में ही थी. उनको पहली फिल्म जो मिली वह भगवान दादा द्वारा निर्देशित फिल्म थी जिसका टाइटल था ‘भला आदमी’. भगवान दादा उनके लिए वाकई में भला आदमी साबित हुए. उनकी एक यही फिल्म थी जिसके कारण वे बंबई में टिक सके और आगे का अपना संघर्ष जारी रख सके.

पहली फिल्म ‘भला आदमी’ जिसे बक्शी साहब अपनी सबसे बड़ी फिल्म कहते थे. उसके बारे में इस किताब में लिखा गया है कि संघर्ष के दिनों में एक बार वो अभिनेता भगवान दादा का रणजीत स्टूडियो में उनके ऑफिस में इंतजार कर रहे थे. उस जमाने में भगवान दादा बहुत बड़े स्टार थे और वो पहली बार एक फिल्म निर्देशित कर रहे थे जिसका नाम था – ‘भला आदमी’. बृज मोहन इसके प्रोड्यूसर थे. बक्शी जी ने ऑफिस के चपरासी से दोस्ती कर ली थी और इस तरह उन्हें पता चला कि भगवान दादा काफी परेशान हैं क्योंकि गीतकार गाना लेकर सिटिंग पर नहीं आया है और भगवान दादा को गाना हर हालत में चाहिए. बक्शी साहब ने फौरन मौके का फायदा उठाया और सीधे भगवान दादा के कमरे में घुस गए.

भगवान दादा ने पूछा – ‘क्या चाहिए तुम्हें?’ आनंद बक्शी ने कहा कि वो एक गीतकार हैं और काम की तलाश में हैं. भगवान दादा बोले – ‘ठीक है, देखते हैं कि तुम गाना लिख पाते हो या नहीं.’

उन्होंने बक्शी साहब को फिल्म की कहानी सुनाई और उन्हें गाने लिखने के लिए पंद्रह दिन का वक्त दिया. पंद्रह दिन के अंदर बक्शी जी ने चार गाने लिख डाले. भगवान दादा को चारों गाने पसंद आ गए और उन्होंने आनंद बक्शी को फिल्म के दूसरे गीतकार के रूप में साइन कर लिया. उन्हें उन चार गानों के लिए डेढ़ सौ रुपये मिले. पहला गाना था – ‘धरती के लाल, ना कर इतना मलाल, धरती तेरे लिए, तू धरती के लिए.’

ये गाना 9 नवंबर, 1956 को रिकॉर्ड किया गया था. संगीतकार थे निसार बज्मी जो कुछ साल बाद पाकिस्तान चले गए थे. दूसरी बार बंबई आने के दो महीने के अंदर आखिरकार गीतकार के रूप में आनंद बक्शी की शुरुआत हो गई. इस फिल्म को बनने में दो साल लग गए. यह 1958 में रिलीज हुई और बॉक्स ऑफिस पर नाकाम हो गई. गीतकार आनंद बक्शी पर भी किसी का ध्यान नहीं गया.

बक्शी साहब के शब्दों में – ‘जब मैंने परदे पर अपना नाम देखा तो खुशी के मारे मैं रो पड़ा। आज अगर मैं एक कामयाब गीतकार माना जाता हूं तो वो भगवान दादा की वजह से है. एक स्टार, अभिनेता और प्रोड्यूसर जिसने मुझे काम दिया, मेरे सपनों, प्रार्थनाओं और उम्मीदों को एक राह दिखाई. मेरे करियर को इस फिल्म से कोई फायदा नहीं पहुंचा, लेकिन फिर भी मेरे लिए वो सबसे बड़ी फिल्म है और हमेशा रहेगी, क्योंकि उसने ही तो मुझे एक गीतकार के रूप में इस दुनिया में जन्म दिया.’

अखबार में फिल्म के छपे पोस्टर में आनंद बक्शी ने लाल स्याही से अपना नाम अंडरलाइन कर दिया था. वो कितने खुश थे! इस पोस्टर पर उनके नाम की स्पेलिंग थी ‘बक्शी’, जबकि होनी चाहिए थी ‘बख्शी.’ स्पेलिंग की ये गलती उनके साथ चिपक गई, पर उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उनकी प्राथमिकताएं अलग थीं.

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