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16 जनवरी 1941 को मध्य प्रदेश के दुर्ग में जन्मे अपनी पीढ़ी के संभवत: सबसे सक्रिय और बहुआयामी लेखक अशोक वाजपेयी एक ऐसे कवि हैं, जो जीवन के अनछुए अनुराग, अदेखे अंधकार और अधखिले फूलों के साथ-साथ उन मुरझाए फूलों से भी प्रेम करते हैं, जिन्हें एक आम व्यक्ति अक्सर नज़रअंदाज़ कर जाते हैं. उनकी काव्यानुभूति की बनावट में सच्ची, खरी और एक सजग आधुनिक भारतीय मनुष्य की संवेदना का योग है, जिसमें परंपरा का पुनरीक्षण और आधुनिकता की खोज साथ-साथ चलते हैं. आजादी के बाद की कविता का जब इतिहास लिखा जाएगा तो अशोक वाजपेयी उन हिंदी कवियों में से एक होंगे, जिनकी कविता की रूह में भारतीयता की एक गहरी छाप मौजूद होगी. उनकी कविताओं का बोध एकायामी नहीं बल्कि बहुआयामी है.
समकालीन काव्य परिदृश्य पर यदि गौर किया जाए तो अशोक वाजपेयी वह महत्वपूर्ण और विरले कवि हैं, जिन्होंने अपनी कविता में नई जमीन की खोज जारी रखी है. गौरतलब है कि उनकी कविता के मुख्य सरोकार प्रेम, जीवन और मृत्यु हैं. यही वह तीन विषय हैं, जो उनकी कविताओं में शामिल हैं.
अशोक वाजपेयी का पहला कविता संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ 1966 में प्रकाशित हुआ था. ‘कुछ रफ़ू कुछ थिगड़े’ उनका ग्यारहवां कविता संग्रह है. इस संग्रह का पहला संस्करण ‘राजकमल प्रकाशन’ ने साल 2004 में प्रकाशित किया. एक साल की अवधि में लिखी गई इस संग्रह की कविताएं, कई बार उदासी से घिरी होने के बावजूद, अपनी पारदर्शिता में उजली और निर्मल हैं. इस संग्रह की कविता के केंद्र में साधारण जीवन की आभा और छवियां हैं, जिन्हें अशोक वाजपेयी की भाषा अनूठे शब्दलोक और समयातीत आशयों से उद्दीप्त करती है.
आइए पढ़ते हैं अशोक वाजपेयी के कविता-संग्रह ‘कुछ रफ़ू कुछ थिगड़े’ से ग्यारह चुनिंदा कविताएं, जो उनकी काव्य-संवेदना के कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित करती हैं-
1)
हलके से
वह पत्ती हवा में हलके से कांपी
हवा उस पत्ती के पास से गुज़रते हुए हलके से कांपी
एक बच्चा उधर बैठे ठंड से हलका सा कांपा
एक बूढ़े के लगभग मरणासन्न चेहरे पर
जीवन फिर से कांपा और शान्त हो गया.
2)
बुढ़िया
बुढ़िया की झोली में
कुछ फल थे सूखे हुए,
कुछ दबी हुई आकांक्षाएं,
कुछ अनकहे रह गए शब्द.
बुढ़िया के घर में अन्न न था,
न कोई बिछौना,
न कोई, किसी के होने की आवाज़.
अपनी झोली बग़ल में रखे हुए
बुढ़िया पसरी रहती है
ओसारे में
जैसे जीवन बिछा हो मृत्यु के फर्श पर.
3)
क्या चाहिए?
तुम्हें जीने के लिए
कम से कम क्या चाहिए?
थोड़ी सी रोटी, कुछ नमक, पानी,
एक बसेरा, एक दरी, एक चादर,
एक जोड़ी कपड़े, एक थैला,
दो चप्पलें,
कुछ शब्द, एकाध पुस्तक, कुछ गुनगुनाहट
दो-चार फूल, मातृस्मृति
दूर चला गया बचपन,
पास आती मृत्यु.
तुम्हें कविता करने के लिए क्या चाहिए?
बहुत सारा जीवन, पूर्वज,
प्रेम, आंसू, अपमान,
लोगों का शोरगुल, अरण्य का एकांत,
भाषा का घर, लय का अंतरिक्ष,
रोटी का टुकड़ा, नमक की डली,
पानी का घड़ा
और निर्दय आकाश.
4)
वृक्ष ने कहा
इधर-उधर भटकने-खोजने से क्या होगा?
अपनी जड़ों पर जमकर रहो,
वहीं रस खींचो,
वहीं आएंगे फूल, फल पक्षी,
धूप और ओस,
वहीं आकाश झुकेगा-
वहीं पृथ्वी करेगी पूतस्पर्श-
वहीं जहां जड़ें हैं
और उन पर जमे तुम हो,
वहीं.
5)
आवाज़
पक्षियों की आवाज़
ऊपर पेड़ों पर अदृश्य
शुद्ध और पारदर्शी
सिर्फ आवाज़
जो किसी से कुछ नहीं कहती.
6)
चिड़िया
आख़िर चिड़िया भी वही कहती है
जो पहली चिड़िया-
चिड़िया कहती क्या है,
और किससे
और क्यों?
7)
सब कुछ प्रतीक्षा है
सब कुछ प्रतीक्षा है :
हरी पत्तियों में चमकता उल्लास,
अचानक आकर चली गई बेमौसम बौछार,
शिवाले में सोये देवता का अस्फुट मंत्रोच्चार से जागरण,
सुबह अखबारवाले की चौथी मंज़िल तक अखबार न फेंक पाने पर झुंझलाहट.
अलसायी दोपहर में न जाने किन कोनों में दुबके कबूतरों की एकलय आवाज़,
पड़ोस के कुंजड़े की दुकान में ताज़ा सब्ज़ियों का उत्साह
एक रोगी बच्चे का अपनी तिपहिया पर लगातार चक्कर
सब कुछ प्रतीक्षा है.
टाइपराइटर पर भूल से छप गया अक्षर,
कविता में असावधानी से छूट गया अधूरा वाक्य,
चिट्ठी में घसीटे में लिखा गया अपाठ्य शब्द,
बिना जाने और बिना किसी व्याकरण के
प्रतीक्षा करते हैं-
-न उन्हें पता है, न किसी और को कि किसकी.
8)
अपनी जगह शब्द
पत्तियां गिरती हैं
न वृक्ष जानता है कितनी
न पत्तियां जानती हैं कहां.
बारिश की बूंदें गिरती हैं
उन्हें पता नहीं कहां,
उन्हें लगता है वे लोप होती हैं
कहीं नहीं.
मृत्यु आती है
सुनसान में दबे पांव
हवा की तरह
जिसे ख़बर नहीं
कि वह कहां जा रही हैं.
इन सबके बीच
कुछ गीली कुछ सूखी ज़मीन पर
शब्द अपनी जगह बनाते हैं
और पत्थरों की तरह
बस जाते हैं
कुछ सदियों के लिए.
9)
शब्द गिरने से बचाते हैं
शब्द गिरने से बचाते हैं :
वे भारहीन गिरते हैं
अंत:करण पर.
वे अंधेरे में
अदृश्य उजाले के सहारे
खोज लेते हैं झाड़-झंखाड़ के बीच
सीढ़ियां,
बियाबान में गलियारे,
हत्यारों की क़ैद से
कूद निकलने की एक खिड़की.
वे एक रस्सी बुन लेते हैं
जिसके सहारे कोई अंधी खोह से
बाहर आ सकता है
या टोह ली जा सकती है
कि कुएं में कौन गिर गया है.
कभी-कभी जब हम ग़लत रास्ते पर होते हैं
शब्द जूतों के अंदर अचानक उभर आई
कील की तरह गड़ते हैं :
वे हमें रोक न सकें
पर इतना जतला ज़रूर देते हैं
कि हम किसी और रास्ते भी जा सकते हैं.
कंकड़-पत्थर की तरह भारी शब्द
अपने की पीसकर रेत बना
और बिछा लेते हैं
ताकि जब हम उन पर गिरें
तो चोट न लगे.
शब्द गिरने से बचाते हैं.
10)
जब-तब
जब सारे अपमान झर गए
जब मुरझा गईं सारी इच्छाएं,
जब गली में आगे जाने की जगह न रही-
तब वह उदारचरित देवता आया
बीत गए जीवन की गाथा से
कुछ चरित्र, कुछ घटनाएं वापस लाकर
उनकी धूल-मैल साफ़ कर
उन्हें उपहारों की तरह उजला बनाते हुए.
11)
शुरुआत
वे सब चले गए
सब कुछ को रौंदकर, ध्वस्त कर
आश्वस्त कि उन्होंने कुछ भी अक्षत नहीं छोड़ा.
तब सूखी पत्तियों के ढेर में गुम हुए कीड़ों की तरह
एक शब्द आया
और उसने अपने मुंह में थोड़ी सी मिट्टी
और तिनका उठाकर रचने की शुरुआत की.
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Tags: Book, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature
FIRST PUBLISHED : June 29, 2023, 23:52 IST
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