Kabirdas Jayanti 2023: संत कबीर दास के इन दोहों में छिपा है जीवन का सार

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ऐसा कौन है जो कबीर के दोहे ना गुनगुनाता हो. ‘मीठी बानी बोलिये’, ‘माटी कहे कुम्हार से’, ‘माला फेरत जुग गया’, ‘गुरु गोविंद दोऊं खड़े’ सहित और ना जाने कितने दोहे और उपदेश लोगों की जुबान पर रहते हैं. जीवन का मर्म और जीवन के हर दर्द का इलाज छिपा है कबीर के दोहों में. वैसे तो तमाम लेखकों ने अपने-अपने तरीके से कबीर की व्याख्या की है. लेकिन हाल ही में एक पुस्तक साहित्य प्रकाशन से छपकर आई है- कबीर.

क्षितिमोहन सेन की पुस्तक कबीर का हिंदी में अनुवाद किया है रणजीत साहा ने. काशी के रहने वाले क्षितिमोहन सेन ने कबीर पंथों और कबीर पीठों में कबीर से संबंधित पोथियों और सामग्रियों का अध्ययन किया. शांति निकेतन में रहते हुए इस गहन अध्ययन के आधार पर क्षितिमोहन सेन की बांग्ला में पुस्तक ‘कबीर‘ प्रकाशित हुई. शांतिनिकेतन ग्रंथमाला के तहत चार खंडों में इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ. इस पुस्तक का पहला खंड 1910 में प्रकाशित हुआ था. रणजीत साहा ने इस पुस्तक के पुनर्प्रकाशित संस्करण को आधार बनाकर अपना अध्ययन प्रस्तुत किया है.

यह पुस्तक चार खंडों में विभाजित है. सभी खंडों में कबीर परख, कबीर उपदेश, कबीर साधना, कबीर तत्व और कबीर प्रेम से अध्याय दिए हुए हैं. यहां हम प्रथम खंड के कबीर उपदेश प्रस्तुत कर रहे हैं-

अवघू अमल करै सो पावै
जौं लग अमल असर ना होवै, तौं लग प्रेम न आवै॥
बिन खाए फल स्वाद बखानै, कहत न सोभा पावै।
आंधर हाथ लिए कर दीपक, कर परकास दिखावै।
औरन आगे करे चांदना, आप अंधेरे धावै॥

हे साधु, जो (मन से) पवित्र होता है, वही पाता है. जब तक पवित्रता की साधना सफल नहीं होती, तब तक प्रेम हो नहीं सकता. बिना फल खाए अगर कोई उसका स्वाद बखाने, तो यह बात व्यर्थ हो जाती है. अंधा अगर अपने में दीप लेकर राह दिखाए तो दूसरे के लिए प्रकाश फैलाते हुए भी, यह स्वयं अंधेरे में ही भटकता रहता है.

जब लग घट सों परचे नाहीं, तब लग कुछ नहिं पायो हो।
तीरथ व्रत और जप तप संयम, जा करनी मत भूलो हो॥
ना कुछ न्हाया ना कुछ धोया ना कुछ घंट बजाया हो।
ना कुछ नेती ना कुछ धोती ना कुछ नाचा गाया हो॥
सिंगी सेल्ही भभूत और बटुया साईं स्वांग से न्यारा हो।
कहैं कबीर मुक्ति जो चाहो मानो शब्द हमारा हो॥

जब तक परमात्मा के साथ परिचय नहीं होता तब तक कुछ भी मिल नहीं सकता. तीर्थ, व्रत, जप, तप, संयम और इन समस्त कार्यों में भूले मत रहना.

अगर मैंने स्नान नहीं किया, शरीर नहीं धोया, घंटा नहीं बजाया, न तो नेती की और न धौति, और कोई नाच-गान भी नहीं किया. सिंगा (फूंकने), माला (पहनने), विभूति (धारण) और बाना ( झोला या झिंगोला) आदि से वह स्वामी सर्वथा स्वतंत्र है.

कबीर कहते हैं, “अगर मुक्ति चाहते हो तो मेरी बात (शब्द) ध्यान से सुनो.”
सुनो!”

सती को कौन सिखाता है, संग स्वामी के तन जारना जी।
प्रेम को कौन सिखावत है, त्याग माहिं भोग को पाना जी॥

पति के साथ देह जला डालना- सती को कौन और कब सिखाता है? प्रेमी को कौन सिखाता है कि त्याग के मध्य ही भोग को प्राप्त करना है.

सूर परकास, तँह रैन कहँ पाइये
रैन परकास, नहिं सूर भास।
ज्ञान परकाश, अज्ञान कहँ पाइये
होय अज्ञान, तहँ ज्ञान नासै॥
काम बलवान, तहँ प्रेम कहँ पाइये
प्रेम जहँ होय, तह काम नाहीं।
कहै कबीर यह सत्त विचार है
समझ विचार कर देख माहीं॥

पकड़ समसेर संग्राम में पैसिए
देह परयंत कर जुद्ध भाई।
काट सिर बैरियाँ दाव जहँ का तहाँ,
आय दरबार में सीस नवाई॥

सूर संग्राम को देख भागे नहीं,
देख भागै सोई सूर नाहीं।
काम और क्रोध मद लोभ से जूझना,
मचा घमसान तन खेत माहीं॥
सील और साँच संतोष साही भये,
नाम समसेर तहाँ खूब बाजे।
कहै कबीर कोई जूझि है सूरमा
कायरां भीड़ तँह तुर्त भाजे॥
साधका खेल तो विकट बेंडामती
सती और सूर की चाल आगे।
सूर घमसान है पलक दो चार का
सती घमसान पल एक लागे॥
साध संग्राम है रैन दिन जूझना
देह पर्यंत का काम भाई॥

सूर्य जहां प्रकाशित है, वहां रात कहां? और जहां रात हो तो वहां सूर्य का प्रकाश नहीं फैलता. जहां ज्ञान प्रकाशित है, वहां अज्ञान कहां? अगर वहां अज्ञान रहे तो ज्ञान वहां विनष्ट हो जाता है. जहां काम बलवान हो, वहां प्रेम कहां? जहां प्रेम हो वहां काम नहीं. कबीर कहते हैं, यही सत्य विचार है. अपने अंतर में इसे अच्छी तरह सोच-विचार कर देखो.

खड्ग (शमशीर) लेकर संग्राम में प्रवेश करो. अरे भाई, देहपात होने तक युद्ध करो. उसका सिर काट (मुंडच्छेद) कर शत्रु को वहीं परास्त कर, उस प्रभु के दरबार में आकर अपना सिर झुकाओ.

वीर कभी भी संग्राम करते हुए पलायन नहीं करता. जो पलायन करता है, यह वीर नहीं हो सकता. काम, क्रोध, मद और लोभ के साथ इस देहक्षेत्र में महायुद्ध छिड़ा हुआ है. शील, सत्य और संतोष के राज्यों के साथ युद्ध चल रहा है, नाम (रूपी) खड्ग बड़ी तेज़ी से वहां चल रहा है. कबीर कहते हैं- अगर कोई वीर युद्ध करने को अग्रसर होता हो तो उन कापुरुषों (कायरों) की भीड़ पल भर में पलायन करती है.

साधकों का संग्राम बहुत भीषण होता है, अत्यंत दुष्कर. सती और वीर के व्रत की अपेक्षा साधक का व्रत अत्यंत दुरूह होता है. वीर का युद्ध दो-चार प्रहर का होता है, सती का युद्ध दो-एक पल का होता है. साधक का संग्राम दिन-रात चलता रहता है. जब तक काया विद्यमान है तब तक इस युद्ध का अवसान नहीं.

अरे मन धीरज काहे न घरै।
पसु पंछी, जिव कीट पतंगा सब की सुद्ध करै।
गर्भ वास में खबर लेतु है बाहर क्यों बिसरै॥
मन तु हसन से साहब के, भटकत काहे फिरै।
पीतम छोड़ और को धावै, कारज हक न सरै॥

– अरे मन, तू धैर्य धारण क्यों नहीं करता? जो पशु-पक्षी, जीव, कीट-पतंग तू आदि सबकी ख़बर रखता है; जो गर्भ में रहते प्राण की खबर रखता है, वह क्या बाहर की ख़बर नहीं रखेगा?

अरे मन, तू प्रभु (साहब) की हँसी (हसन) से दूर-दूर क्यों भागता फिर रहा है? प्रियतम को छोड़कर तू दूसरे का ध्यान कर रहा है इसलिए तुम्हारी सारी तैयारी व्यर्थ होती जा रही है.

चरणन ध्यान लगाय के रहौ, नाम लौ लाय।
तनिक न तोहि बिसारि हौं, यह तन रहे कि जाय॥

– तुम्हारे नाम-ध्यान के साथ तुम्हारे चरणों के ध्यान में मगन रहूंगा. यह देह रहे या ना रहे, एक पल के लिए तुम्हें नहीं विसराऊंगा.

प्रेम गहै निरभव रहौ, तनिक न आवै पीर।
यह लीला है मुक्ति की, गावत दास कबीर॥

– मैं प्रेम को ग्रहण करूंगा, निर्भय रहूंगा. इससे लेश मात्र भी पीड़ा पास नहीं फटकेगी. दास कबीर गान गा रहे हैं, यही मुक्ति की सहज लीला है.

बातौं मुक्ति न होइ है छाड़ैं चतुराई हो॥
एक प्रेम जाने बिना भूला दुनियाई हो।
वेद कतेब भवजाल है, मरिहै बौराई हो॥
मुक्ति भाव कुछ और है, कोई बिरले पाई हो।
बसहु हमारे देशवा, जम तलब नसाई हो॥
कहैं कबीर पुकारि के, साधुन समुझाई हो।
सत्त सजीवन प्रेम है सत गुरुहि लखाई हो॥

– अपनी चतुराई छोड़ दो, बातों से मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं है. एकमात्र प्रेम को जब तक नहीं जानोगे, तब तक इस संसार में भ्रमित होकर घूमते रहोगे. वेद और कुरान भवबंधन स्वरूप हैं. इनके जाल में फंसने पर तुम पागल होकर मरोगे. मुक्ति और प्रेम कुछ अलग ही स्थितियां हैं, इन्हें कोई विरला ही प्राप्त करता है. आओ भाई, आकर मेरे देश में वास करो; इससे तुम यम की पुकार से बच जाओगे. कबीर ऊंचे स्वर में पुकार कर कह रहे हैं- प्रेम ही एकमात्र सत्य है, प्रेम मात्र ही जीवनाधार है, सद्गुरु ने इस लक्ष्य को प्राप्त करना निर्धारित (नियत) कर रखा है.

प्रेम लगन छूटै नहीं सोइ साधु सयाना हो।
क्या सराय का बासना, सब लागे बेगाना हो।
हुआ भोर चल दरबार में सबको पहचानो हो॥

– वही साधु ज्ञानी है, जिसका प्रेम के साथ संयोग कभी नहीं टूटता. जो पांथशाला (सराय) में वास कर रहा है, यहां सारे लोग तुमसे अपरिचित हैं. अब सुबह हो गई है, उसी के दरबार में चलो- जहां उन सबसे परिचित होने का लाभ मिलेगा.

जगत से खबर नहीं पल की॥
झूट कपट करि बंध जोरिन बात करैं छल की।
काम की पोट घरे सिर ऊपर किस विधि होय हलकी॥
ज्ञान वैराग प्रेम मन राखो कहैं कबीरा दिल की॥

– पल भर के लिए भी इस संसार के साथ तुम्हारा परिचय नहीं था. यही है जो छलभरी बात करता है और साथ ही, मिथ्या एवं कपटाचरण कर अपने बंधन में बांध लेता है. कामना का बोझ तुम्हारे सिर पर रखा हुआ है- वह हल्का किस प्रकार होगा? कबीर अंतर की बात करते हैं, “अपने प्राण में ज्ञान, वैराग्य और प्रेम को बसा लो!”

जोग जाप नेम व्रत पूजा बहु परपंच पसारा हो।
सतगुरु पीर जीव के रक्षक तासे करो मिलाना हो॥
जाके मिले परम सुख उपजै, पावौ पद निर्वाना हो।
कहँ कबीर तहाँ पहुंचाऊँ सत्त पुरुष दरबारा हो॥

-योगयाग, नियम, व्रत, पूजा आदि जैसे सारे व्यापार ही चारों ओर फैले हुए हैं. जो सद्गुरु हैं, जो प्रिय हैं, जो जीव के रक्षक हैं- उनके साथ मिलन करो. उनके संग मिलन में परमानंद और निर्वाण प्राप्त होगा. कबीर कहते हैं, “तुम्ह वहां पहुंचा दूंगा, जहां सत्य पुरुष का दरबार है.”

मन रे अबकी बेर सम्हारो॥
पूर रह्यों जगदीश गुरु तन वा से रह्यो नियारा।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब घट देखनहारा॥

– अरे मन, अबकी बार तो खुद को खुद से ही सम्हालो. ये जो जगदीश जगत के गुरु हैं और जिन्होंने तुम्हारे तन को पूर्ण किया है उनके निकट ही जमे रहो. कबीर कहते हैं, “हे साधु, वे समस्त जीव (घट) को सदैव देखते रहते हैं.”

मन कर ले साहब से प्रीत।
सरन आए सो सबही उबरे, ऐसी उनकी रीत।
ऐसा जन्म बहुर नहिं पैहो, जात उमिर सब बीत॥

– हे मन, उस स्वामी के संग ही प्रेम कर लो. जो उनकी शरण में चला जाता है, उसकी कोई क्षति नहीं होती. ऐसा जन्म फिर दोबारा नहीं मिल पाएगा; और ऐसे ही तुम्हारी उम्र व्यर्थ बीत गई है.

काया कोट में काम बिराजै सो जम के गढ़ छायो।
जनम मरन ते अमी की धारा प्रेम पियाला लाओ॥
सरस गगन जें होत महा धुन साधन सुन उठि धाओ।
राग गभीरा कहे कबीरा, सूतल ब्रह्म जगाओ॥

– तुम्हारे देह मंदिर में जो काम निवास कर रहा है, उसी ने मृत्यु के दुर्ग का निर्माण किया है. जन्म से लेकर मरण पर्यंत अमृत का प्रवाह जारी है इसलिए प्रेम का प्याला ग्रहण करो- गगन में जो सरस महासंगीत ध्वनित हो रहा है, (अपनी) साधना में उसे सुनते हुए बढ़ चलो. गंभीर रागिनी में कबीर कह रहे हैं-“सुप्त ब्रह्म को जाग्रत करो!”

सुख सागर में आयके, मत जा सुख सागर रे प्यासा।
अजहु समझ रे बावरे, जम करत तिरासा॥
निर्मल नीर भरेव तेरे आगे पी ले स्वाँसा स्वाँसा।
मृगतृस्णा जल छाँड़ बावरे करो सुधारस आसा॥
ध्रुव प्रह्लाद शुकदेव पिया और पिया रैदासा।
प्रेमहि संत सदा मतवाला एक प्रेम की आसा॥
कहैं कबीर सुनौ भाई साधो मिट गई भय की बासा॥

– हे भ्रमित मानव, सुख सागर में आकर पिपासा (प्यास) लिए वापस मत लौट जाना! अब भी प्रबुद्ध हो जाओ क्योंकि मृत्यु का भय तुम्हें घेरे हुए हैं. तुम्हारे सम्मुख निर्मल नीर भरा है, उसे एक-एक श्वास में भरकर पान करो! अरे उतावले (उन्मत्त), मृगतृष्णा के पीछे मत दौड़ो. उस अमृतरस की आकांक्षा करो! ध्रुव, प्रह्लाद और शुकदेव ने इसका पान किया है और पान किया है रविदास ने. प्रेम का साधक सदैव मत्त रहता है. एकमात्र प्रेम ही उसकी आशा होती है. कबीर कहते हैं, “हे साधु, भय का बासा ढह गया है.”

भ्रम के ताला लगा महल जे प्रेम की कुंजी लगाव।
कपट किवड़िया खोल के रे यही विधि पिय को जगाव॥
कहैं कबीर सुनो भाई साधो फिर न लगे अस दाव॥

– जिस महल में भ्रम का ताला बंद है-वहां प्रेम की चाबी लगाओ! इस विधि से कपट का द्वार खोलकर उस भवन के मध्य प्रियतम को जाग्रत करो! कबीर कहते हैं, “अरे भाई, ऐसी सुविधा क्या फिर कभी पाओगे?”

यह जियरा अनमोल है
भयो कौड़ी को फेंका रे।

– यह प्राण अमूल्य है, इसे एक-एक कौड़ी (कड़ा) की बाज़ी में लगा दिया, दाव पर रख दिया.

कोई भूला मन समुझावै।
बोए बबूल, दाख फल चाहै, सो फल कैसे पाये।

-इस पागल मन को कौन समझावे? जो कांटेदार बबूल को रोपकर द्राक्षा (अंगूर) का फल चाहता है, वह भला यह फल कैसे पाएगा?

छिमा गहौ हो भाई धर बालम चरनी ध्यान रे।
मिथ्या कपट तजो चतुराई तजो जाति अभिमान रे॥
दया दीनता समता धारो, हो जीवत मृतक समान रे।
सुरत निरत मन पवन एक कर सुनो शब्द धुन तान रे॥
कह कबीर पहुँचो सत लोका, जहुँ रहे पुरुष अमान रे॥

-हे भाई, क्षमा-भाव को ग्रहण करो, वल्लभ (बालम) के चरणों का ध्यान करो. मिथ्या, कपटता, चतुरता और जाति का जो अभिमान है, इसका त्याग करो! दया, दीनता, समता आदि का अभ्यास करो. जीवित होते हुए भी मृत के समान बने रहो.

प्रेम और वैराग्य, मन और जीवन की क्रिया को एक कर, विश्व-संगीत की ध्वनि और तान को ध्यान से सुनो. कबीर कहते हैं- इसी उपाय के द्वारा, उस सत्यलोक में गमन करो जहां असीम पुरुष का धाम है.

खसम न चीन्है बावरी, का करत बड़ाई।
बातन लगन न होयेंगे, छोड़ौ चतुराई॥
साखी शब्द संदेश पढ़ि मत भूलौ भाई।
सार प्रेम कछु और है खोजा सो पाई॥

– अरी अभागिन, जब तू स्वामी को पहचानती ही नहीं तो उसकी बड़ाई किससे कर रही है? चतुराई त्याग दे. केवल बातों के द्वारा कभी (उनसे) मिलन नहीं होगा. धर्म-विषयक शब्द और संदेश पढ़कर भ्रम में मत भूली रहना! सच्चा (सार) प्रेम एक स्वतंत्र वस्तु है, जो यथार्थ भाव (सच्चे मन) से चाहता है, उसने उन्हें पाया है.

पुस्तकः कबीर
लेखकः क्षितिमोहन सेन
अनुवादकः रणजीत साहा
प्रकाशकः साहित्य अकादमी
मूल्यः 270 रुपये

Tags: Books, Hindi Literature, Kabir Jayanti, Literature

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