संजय शेफ़र्ड ने घुमक्कड़ी और लेखन के लिए छोड़ दी नौकरी, पैशन को ही बना लिया प्रोफेशन

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संजय शेफ़र्ड एक लेखक और जबरदस्त घुमक्कड़ हैं. राजधानी दिल्ली में उनका एक स्थायी ठिकाना है लेकिन देश के विभिन्न गांवों और शहरों में वे घूमते रहते हैं. अगले दिन किस शहर में होंगे और शाम कहां गुज़रेगी ये उन्हें खुद भी नहीं मालूम होता. कुछ साल पहले तक घूमना और लिखना शौकिया तौर पर शुरू हुआ और धीरे-धीरे संजय का पैशन बन गया. संजय का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में हुआ, जो गोरखपुर जिले में आता है. गांव के ही स्कूल से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की. सात साल तक जवाहर नवोदय विद्यालय के छात्र रहे. विज्ञान की पढ़ाई ने इनके भीतर कला के प्रति गजब का सम्मोहन पैदा किया. स्कूल में जिन किताबों को आलतू-फालतू कहा जाता था, कॉलेज में आने के बाद उन्हें इन्हीं से प्यार हो गया. दिल्ली के अलावा मुंबई में संजय ने एक लंबा वक्त गुज़ारा है, उस पर बात करते हुए वे कहते हैं, “दिल्ली अच्छी जगह थी कि मुंबई, यह कभी समझ में नहीं आया. पर रोजी-रोटी की जुगत में सात सालों तक इन्हीं दो शहरों में भटकता रहा. इस दौरान बालाजी टेलीफिल्म, रेडियो मिर्ची और बीबीसी ट्रेवल के साथ काम किया. लोग पूछते हैं कि नौकरी क्यों छोड़ी? यह तो मुझे भी नहीं मालूम पर कभी-कभी यह जरूर सोचता हूं, कि मैंने नौकरी की ही क्यों? सिर्फ दो जोड़ी जूते और एक बैकपैक खरीदने के लिए?”

वैसे देखा जाए, तो घूमना भी एक तरह का काम ही है, लेकिन यह सही गलत से परे का काम है. यही कारण है कि संजय शेफ़र्ड का मन इसमें ज्यादा लगता है. गांव-गिराव, नदी-पहाड़, लोक और जीवन संजय को आकर्षित करता है. वे कहते हैं, “छोटी-छोटी जगहें, छोटी-छोटी जीवन से जुड़ी बातें मुझे ज्यादा अच्छी लगती हैं. बड़ी बातों से पता नहीं क्यों मुझे परहेज़ है. बड़ा नाम और शोहरत से जी घबराता है. हां, पर कोई जब यह कहता है कि तुम बहुत अच्छे हो, तो मुझे बहुत सकून मिलता है. कोई यह कह दे कि अच्छा लिखते हो, अच्छा घूमते हो तो और भी अच्छा लगता है.” संजय की पढ़ाई काफी देरी से शुरू हुई और धीरे-धीरे पीएचडी तक पहुंची. संजय ने बैचलर ऑफ़ मास कॉम में बैचलर और मास्टर किया और म्यूजियोलॉजी में डॉक्ट्रेट. फिर नौकरी शुरू की और इस दौरान तमाम तरह की राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय संस्थाओं के लिए भी काम किया. देश-विदेश की यात्राओं ने भूगोल, इतिहास, कला और संस्कृति के प्रति उनके भीतर रूचि पैदा की. लिखना पढ़ना शुरू हुआ तो ढेरों किताबें पढ़ीं और जब नौकरी से ऊब पैदा होने लगी, तो नौकरी छोड़कर घुमक्कड़ी करने लगे.

संजय शेफ़र्ड 2016 से एक घुमक्क्ड़ की तरह जीवन जी रहे हैं और उन्हें ऐसा जीवन पसंद भी है. संजय टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, एनडी टीवी, दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, प्रभात खबर, स्ट्रोलिंग इंडिया, ग्रीन स्टोरीज़ के लिए स्वतंत्र रूप से लिखते भी रहे हैं, साथ ही टोयटा, महेन्द्रा एडवेंचर और जीएनजी ग्रुप के लिए मौके-बेमौके घुमक्कड़ी करते हैं.

संजय शेफ़र्ड की किताब ‘ज़िंदगी ज़ीरो माइल’
कहानी में एक सन्यासी है, एक लड़का है. दोनों आपस में धर्म, अध्यात्म, दर्शन, सुख, दुःख, जीवन, मृत्यु, मुक्ति और निर्वाण आदि की चर्चा कर करते हैं. सन्यासी बुज़ुर्ग है और लड़का 22 साल का है. ये चर्चा दोनों के मध्य कभी नदी किनारे बैठकर, कभी पहाड़, कभी झरने, कभी मंदिर के चबूतरे, कभी नाँव पर बैठकर तो कभी जंगल की राह चलते हुए होती है. कहानी में दृश्य कुछ इस तरह से प्रतिबिम्बित होता है, कि दोनों किसी झरने के किनारे या पहाड़ पर बैठे हुए हैं जिनकी सिर्फ़ पीठ दिखाई देती है. ऐसा लगता है दो गौतम बुद्ध बैठे अपने उम्र के दो अलग-अलग पड़ाव पर ज्ञान की खोज पर बातें कर रहे हैं.

Sanjaya Shepherd

घुमक्कड़ लेखक संजय शेफ़र्ड की नई किताब ‘ज़िंदगी ज़ीरो माइल’

“कितना अजीब है ये कि किताबें जीवन से भी कहीं ज्यादा रहस्यमयी होती हैं. कब कौन सा दरवाज़ा खुलेगा, कब किस दुनिया में हम प्रवेश कर जायेंगे ये किसी को नहीं पता होता.” ये पंक्तियां खुद ये किताब कहती है और अपनी ही कही बात को यकीनन पूरा भी करती है. ‘जिंदगी जीरो माइल’ को पढ़ते हुए आपको कई बार ये ही लगेगा कि आप किसी दरवाजे से अपनी जगह से उठ कर सीधे किसी और दुनिया में पहुंच गए हैं, जहां कभी आप एक एक बेहद संवेदनशील लड़के से मिलते हैं, जो अतीत के दुखों को वर्तमान में भी जी रहा है… तो कभी किसी घुमक्कड़ से मिलते हैं, जो कभी न खत्म होने वाली यात्रा पर है. कहानी में कभी एक संन्यासी आपके सामने होता है तो कभी ईश्वर के अस्तित्व पर उलझा हुआ एक प्रेमी. जिंदगी की यात्रा को दर्शन और अध्यात्म से जोड़ते हुए भी किताब की लेखन शैली सहज और सरल है. कई जगह बहुत गहरी बात भी बेहद संजीदा ढंग से लिखी गई है. कई बार लगता है कि ये बात जो लिखी गई है, हम भी तो कितनी बार यही महसूस करते हैं, लेकिन शब्दों में कहीं दर्ज नहीं कर पाते. जीवन, ईश्वर, प्रेम, विछोह, मृत्यु और मुक्ति पर लिखे गए शब्दों की यात्रा है ‘जिंदगी जीरो माइल.’

ज़िंदगी ज़ीरो माइल को पढ़ना इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि ये किताब आपको सिखाती है कि सिर्फ भागना, भागते रहना ही जिंदगी नही है, बल्कि रुकना भी जिंदगी है, ठहरना भी जिंदगी है और सुस्ताना भी जिंदगी है. इंसानों को भी ठहरना चाहिए. ख़ुद में ख़ुद के होने को महसूस करना चाहिए, नहीं तो जीवित होते हुए भी इंसान मर जाएगा. संजय शेफर्ड कविताएं भी लिखते हैं. मज़ेदार बात ये है कि सोशल मीडिया पर इनकी कविताओं को खूब पढ़ा और लोगों के बीच ख़ासा पसंद भी किया जाता है.

आइए पढ़ते हैं, संजय शेफ़र्ड की चुनिंदा कविताएं- ‘प्रेम और युद्ध’, ‘कांच की लड़कियां’, “मेरा ईश्वर”, “पीठ पर युद्धरत जीवन”, “प्रेम और चाय” और “नमक की बात”, जिनकी खूबसूरती एक दिलचस्प यात्रा पर ले जाती है.

1)
प्रेम और युद्ध
प्रेम नहीं मिला तो
उस दिन
मैंने पहली बार सोचा कि
मेरे पास कुछ हथियार होने चाहिए
और एक पेन खरीदकर लाया
एक नोटबुक
और कुछ किताबें

पेन से पहला खत
उसी लड़की के नाम लिखा
पहली कविता, पहली कहानी भी
बावजूद इसके हार गया
और कविता, कहानी, ख़त
तीनों को ही एक साथ
अपनी ठंडी आह से जला देना चाहा

प्रेम विद्रोह भी हो सकता है
और क्रान्ति भी
पर हर क्रान्ति को
पहले विद्रोह बनना पड़ता है
विज्ञान संकाय का होने के बावजूद
इस बात को मैं
अच्छी तरह से जानता था

धीरे धीरे लड़ाई
युद्ध में बदलती गई
प्रेम ने भूगोल भी लिखा
इतिहास भी
गणित भी समझा, अर्थशास्त्र भी
और वह हथियार
एक दिन जाने कैसे प्रेम बन गया

इस तरह उस दिन मैंने
दूसरा ख़त लिखा
दूसरी कविता, दूसरी कहानी लिखी
उस दूसरी लड़की के लिए
जिसका मिलना अभी बाकि है
और उस तक पहुंचने के लिये
मैं एक और बड़ी जंग की तैयारी में हूं.

2)
कांच की लड़कियां
कांच की लड़कियां
एक बार गिरती हैं और टूट जाती हैं
फिर भी पत्थर नहीं होना चाहती

कांच की लड़कियां
बार- बार टूटने के बाद भी
बने रहना चाहती हैं
एक दिल
जो टूटकर भी देह से अलग नहीं होता
भले ही गड़ता रहता है
ताउम्र छातियों के भीतर

कांच की लड़कियां
जीना चाहती हैं
लाख मरने के बावजूद
और बनें रहना चाहती हैं
एक खुली हुई देह
जिसमें मातृत्व पनपता है
और प्रेम भी

दरअसल, कांच की लड़कियां
दिल होना चाहती हैं
देह होना चाहती हैं
धरती और प्रेम होना चाहती हैं

दरअसल, कांच की लड़कियां
भूमि होना चाहती हैं
गगन होना चाहती हैं
वायु, अग्नि और जल होना चाहती हैं

कांच की लड़कियां
उगना चाहती हैं
कांच की लड़कियां पेड़ होना चाहती हैं
ऐसे में उनका टूटना जरूरी है

जरूरी है यह भी कि
वह अपनी बांहों में
सम्पूर्ण सृष्टि को समेटना सीखें
क्योंकि यह नेमत
किसी पुरूष को नहीं बख़्शी जा सकती
ना ही किसी पत्थर को

[कांच की लड़कियां मिट्टी ही तो होती हैं
एक बार तुम जरा इन्हें छूकर तो देखो ]

3)
मेरा ईश्वर
मेरा ईश्वर मुझसे प्रेम नहीं करता
वह बेहद ही नास्तिक है
उसका ईश्वर उसे प्रेम करता है
उसके नास्तिक होने के बावजूद भी

मेरी आस्था डगमगा रही है
मुझे, एक प्रेम करने वाला ईश्वर चाहिए
बिल्कुल वैसे ही जैसा कि
एक औरत को प्रेम करने वाला पति चाहिए होता है

आजकल, मैं सुबह- शाम,
वक़्त- बेवक़्त, सोते- जागते
अपने ईश्वर को धमकाता हूं
विनती करता हूं कि तुम बदल जाओ

पर उसके कान पर जू तक नहीं हिलता
वह दिन- प्रतिदिन की तरह
सूरज के माथे पर चढ़ आने तक सोया रहता है
और मैं घर से निकल जाता हूं

किसी और ईश्वर का पता ढूंढने
बिल्कुल उस औरत की तरह
जिसका पति उसे प्रेम नहीं करता
सुबह- शाम बस उसकी पीठ पर कोड़े मारता है

किसने कहा कि ईश्वर एक है
यहां सभी का अपना अपना ईश्वर होता है
जैसे कि उस औरत का ईश्वर ?
जैसे कि उस मजदूर का ईश्वर ?
जैसे कि मेरा- तुम्हारा, हम सबका ईश्वर ?

मेरा ईश्वर मुझसे प्रेम नहीं करता
मुझे, एक ऐसा ईश्वर चाहिए
जो मुझे प्रेम कर सके
मेरी बाहों में लिपटकर एक औरत की तरह
बिल्कुल सहज, बेग़ैरत और नंगा होकर।

क्या ऐसा ईश्वर है कहीं ?

4)
पीठ पर युद्धरत जीवन
मैं जीवन नहीं
बस एक औरत की पीठ और पेट हूं
तुम जितना चाहो
मेरी पीठ पर पत्थर मारो
बस मेरे पेट को बख़्श दो
मैं कुछ और कविताओं को जन्म देना चाहता हूं

मैं कुछ दिनों जिन्दा रहना चाहता हूं
इस भूख, नंगेपन के बावजूद
कुछ जन्में- अजन्में शब्दों के सहारे
अपनी छातियों के भीतर
क्या तुम नहीं जानते ?
इन दिनों मेरे अंदर एक गर्भ पल रहा है ?

मैं जानता हूं
कुछ देर बाद तुम बाज़ार जाओगे
खरीदकर लाओगे
एक गर्भवती औरत के जरुरत की
तमाम चीजों के साथ
गर्भपात के कुछ खतरनाक औजार

उस कविता के जन्म से पहले
मुझे ले जाओगे
अवचेतन की उस अवस्था में
जहां मेरा मुझमें होना नगण्य हो जाएगा
और तुम आंख मूंदकर
मेरे उभरे हुए पेट पर मार दोगे एक जोरदार लात
कर दोगे मेरे सपनों की हत्या…

इन दिनों मैं पेट से हूं…
मेरी पीठ पर युद्धरत है
एक गर्भवती औरत की तरह जीवन।

5)
प्रेम और चाय
तुम्हारा प्रेम
मेरी दिनचर्या का अहम हिस्सा था
तुम जब भी कहती थी
तुम्हें चाय की लत लग गई है
मैं समझता था कि तुम प्रेम की बात कर रही हो

हमारे-तुम्हारे बीच
यही एक शब्द का संवाद था
फिर भी वर्षों-वर्षों तक चलता रहा
और मेरी चाय पीने की लत नशे में बदल गई

इसी बीच तुम प्रेम की बात करने लगी
तो इतना ही कह पाता हूं
तुम्हारे हाथ की बनी चाय बहुत अच्छी होती है
और लम्बे वक़्त के लिए चुप हो जाता हूं…

क्या मैं इस चुप्पी का अर्थ जान सकती हूं ?

इसी बीच तुम एक सवाल उछालती हो
एक उचकाहट के साथ मेरी नींद टूटती है
जिंदगी ‘नशे और नींद’
दोनों का फर्क़ एक झटके के साथ खत्म कर देती है

आखिर ‘प्रेम’ महज़ नींद की गोली तो नहीं…

6)
नमक की बात
हमारी बातें कितनी बेस्वाद हो चुकीं थी
जब हम सिर्फ मिठास की बात किया करते थे
कुछ दिनों से बदलाव आया है
स्थिति में सुधार दिख रहा है
जब से हम दोनों परस्पर नमक की बात करने लगे हैं

रिश्ते सुधर रहे हैं
हम दोनों एक दूसरे में लौटने लगें हैं

वह होंठों को काटते हुए कहती है
ऐसा लगता है
तुमने अपनी मुस्कान में नमक घोल दिया है
मैं कहता हूं नहीं पगली- समुन्द्र
वह आकाश बनकर मुझ पर फ़ैल जाती है
और मैं धरती बन पसर जाता हूं …

हम दोनों अबोध हो खेलने लगते हैं
बारिश में भीगते हुए
मिट्टी- मिट्टी का खेल
ऐसा लगता है चौथी क्लास की एक लड़की को
उसका पुराना दोस्त मिल गया है
जो उसके आंचल के नीचे
अक्सर माटी का कच्चा घर बनाया करता था

वह अपनी जीभ से
उस दोस्त के आंसूओं को चखकर
समुद्र (आंखों) और नदी (होंठों) को मिला देती है
एक मीठे पानी का स्त्रोत फूटता है
वह अपनी अंजुरी में
मुठ्ठी भर पानी भरकर मेरे होंठों पर उलचती है

एक नदी का अस्तित्व उभर आता है
शायद उसे भी हमारी तरह नमक की जरूरत है
गंगा नमक लेने जा रही है
या फिर समुन्द्र के खारेपन को अपने होंठों से चूसने
कुछ कहा नहीं जा सकता …
दरअसल, ये चुम्बन बोलने कहां देते हैं.
दरअसल, यह चुम्बन हमें निशब्द कर देते हैं.

दरअसल, हर मिठास में टुकड़ा भर नमक होता है.

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