भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं: लाओ अपना हाथ, चार कौए उर्फ चार हौए, हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो

[ad_1]

मैं पूजा प्रसाद न्यूज18 हिंदी के इस स्पेशल पॉडकास्ट में आपका स्वागत करती हूं. स्वीकार कीजिए पूजा प्रसाद का नमस्कार. साथियो, भवानी प्रसाद मिश्र हमारे दौर के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों में हैं. 29 मार्च 1914 को उनका जन्म हुआ था और 20 फरवरी 1985 को उनका निधन. गांधीवादी विचारधारा का यह कवि आजादी के संघर्ष में बहुत सजग था. इस दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा. जेल में लिखी इनकी कविता ‘घर की याद’ खूब चर्चित रही है.

ये भी सुनें- केदारनाथ सिंह की कविताए सुनें और गुनें

घर की याद जैसी चर्चित इनकी दूसरी कविता ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ है. इनकी कविताओं की एक खासियत तो है वह उम्मीद जो घने अंधेरों से लड़ने की प्रेरणा देती है. इन्होंने अपनी कई कविताओं में भविष्य को लेकर चिंता जताई है. इनका चाहना रहा है कि अपनी भावी पीढ़ी को जीने लायक माहौल दे सकें. इसी का संकेत देती हुई भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है – लाओ अपना हाथ.

लाओ अपना हाथ मेरे हाथ में दो
नए क्षितिजों तक चलेंगे
हाथ में हाथ डालकर
सूरज से मिलेंगे

इसके पहले भी
चला हूं लेकर हाथ में हाथ
मगर वे हाथ
किरनों के थे फूलों के थे
सावन के
सरितामय कूलों के थे

तुम्हारे हाथ
उनसे नए हैं अलग हैं
एक अलग तरह से ज्यादा सजग हैं
वे उन सबसे नए हैं
सख्त हैं तकलीफ़देह हैं
जवान हैं

मैं तुम्हारे हाथ
अपने हाथों में लेना चाहता हूं
नए क्षितिज
तुम्हें देना चाहता हूं
खुद पाना चाहता हूं

तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेकर
मैं सब जगह जाना चाहता हूं !
दो अपना हाथ मेरे हाथ में
नए क्षितिजों तक चलेंगे
साथ-साथ सूरज से मिलेंगे !

इनके विचारों में कभी कड़वाहट को जगह नहीं मिली, सौम्यता और शालीनता इनके गुण रहे. विषम परिस्थितियों में भी मनुष्य बने रहने की चेतना को हमेशा जिलाए रखना इनकी सबसे बड़ी चिंता रही. भवानी जी की एक कविता है – हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो. आइए सुनें.

ये भी सुनें- मंटो की कहानी आर्टिस्ट लोग

हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो,
हो परिचित या परिचय विहीन
तुम जिसे समझते रहे बड़ा
या जिसे मानते रहे दीन
यदि कभी किसी कारण से
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,
तो सख्त बात कह उठने की
रे, तेरे हाथों हो न भूल ।

मत कहो कि वह ऐसा ही था,
मत कहो कि इसके सौ गवाह,
यदि सचमुच ही वह फिसल गया
या पकड़ी उसने ग़लत राह-
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से
काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह अरे,
देकर देखो ।

कितने भी गहरे रहे गत’,
हर जगह प्यार जा सकता है,
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो,
हर समय प्यार भा सकता है,
जो गिरे हुए को उठा सके
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा पाए न जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं ।

देखे से प्यार भरी आँखें
दुस्साहस पीले होते हैं
हर एक धृष्टता के कपोल
आँसू से गीले होते हैं।
तो सख्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो ।

तुमको शपथों से बड़ा प्यार,
तुमको शपथों की आदत है,
है शपथ गलत, है शपथ कठिन,
हर शपथ कि लगभग आफ़त है,
ली शपथ किसी ने और किसी के
आफत पास सरक आई,
तुमको शपथों से प्यार मगर
तुम पर शपथें छायीं-छायीं ।

तो तुम पर शपथ चढ़ाता हूँ
तुम इसे उतारो स्नेह-स्नेह,
मैं तुम पर इसको मढ़ता हूँ
तुम इसे बिखेरो गेह-गेह।
हैं शपथ तुम्हें करुणाकर की
है शपथ तुम्हें उस नंगे की
जो भीख स्नेह की माँग-माँग
मर गया कि उस भिखमंगे की ।

है सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो ।

जैसा की पहले चर्चा कर चुकी हूं कि आजादी के संघर्ष में भवानी प्रसाद मिश्र ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. इन्हें जेल भी जाना पड़ा था. लेकिन आजादी के बाद भी इनका संघर्ष रुका नहीं. आपातकाल के दौरान सत्ता के खिलाफ कई कवि-रचनाकार मुखर थे, भवानी प्रसाद मिश्र भी उनमें एक थे. आपातकाल के दौरान उन्होंने रोज सुबह-दोपहर-शाम सत्ता की तानाशाही के खिलाफ कविताएं लिखीं. बाद के दिनों में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुआ. इसी संग्रह की एक कविता है – ‘चार कौए उर्फ चार हौए’. आइए सुनें…

ये भी सुनें- राहत इंदौरी की ग़ज़लें और नज़्म

बहुत नहीं थे सिर्फ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्योहार कहें सब उसे मनायें ।

कभी-कभी जादू हो जाता है दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरूड़ और बाज हो गये ।

हंस मोर चातक गौरैयें किस गिनती में
हाथ बांधकर खडे़ हो गए सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़ें कौए-कौए गायॆं ।

बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को

कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आये उनके जी में
उड़ने तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ रह गये बैठे ठाले ।

आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ।

भवानी प्रसाद मिश्र ‘दूसरा सप्तक’ के पहले कवि रहे हैं. इनका खुद का पहला कविता संग्रह ‘गीत फरोश’ के नाम से प्रकाशित हुआ था. 1972 में ‘बुनी हुई रस्सी’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. तकरीबन दस बरस बीद उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यकार सम्मान से भी उन्हें नवाजा गया और ठीक इसके एक साल बाद मध्य प्रदेश ने इन्हें शिखर सम्मान से अलंकृत किया. बहरहाल, उम्मीदों से भरी इनकी एक प्यारी कविता है – मैं फिर आऊंगा. आइए सुनें

गतिहीन समय ने
मुझे इस तरह फेंक दिया है
अपने से दूर
जिस तरह फेंक नहीं पाती हैं
चट्टान लहरों को
मैं समय तक आया था यों
कि उसे भी आगे बढ़ाऊँ

मगर उसने
मुझे पीछे फेंक दिया है
मैं चला था जहाँ से
अलबत्ता वहां तक तो
नहीं ढकेल पाया है वह मुझे

और कुछ न कुछ मेरा
समय को भले नहीं
सरका पाया है आगे

ख़ुद कुछ आगे चला गया है उससे
लाँघकर उसे छिटक गये हैं
मेरे शब्द
मगर मैं उसे अब
समूचा लाँघकर
आगे बढ़ना चाहता हूँ

अभी नहीं हो रहा है उतना
इतना करना है मुझे
और इसके लिए
मैं फिर आऊँगा

जी हां दोस्तो, भवानी प्रसाद मिश्र की इस कविता के साथ ही आज का यह स्पेशल पॉडकास्ट यहीं खत्म होता है, लेकिन इसी कविता के तर्ज पर कहूं कि मैं फिर आऊंगी, एक नए पॉडकास्ट के साथ, एक नए रचनाकार के साथ. तब तक के लिए पूजा को दें विदा. नमस्कार.

[ad_2]

Source link