पढ़ें सौरभ राय की वो चुनिंदा कविताएं, जो खत्म होने के बाद भी मस्तिष्क में चलती रहेंगी

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बेंगलुरु निवासी सौरभ राय कवि, अनुवादक और पत्रकार हैं. सौरभ का बचपन झारखण्ड में बीता और वहीं से उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा भी ली. उन्होंने बेंगलुरु से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और उसके बाद हमेशा हमेशा के लिए वहीं बस गए. कई जगहों पर एक प्रोग्रामर के तौर पर काम किया, पत्रकारिता भी की और एक बड़े संस्थान में संपादक रहे, लेकिन किताबों से उनकी मोहब्बत उन्हें अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय और निफ्ट तक ले गई, जहां उन्होंने पढ़ाने का काम किया. बच्चों के साथ उनका लगाव और हिंदी के लिए उनका प्रेम इतना गहरा है, कि इन दिनों सौरभ एक स्थानीय स्कूल में हिंदी पढ़ाते हैं, साथ ही अपने लेखन को पूरा समय देते हैं. बेंगलुरु जैसे गैर हिंदी भाषी राज्य में हिंदी को बचाये और बनाये रखने के लिए सौरभ प्रयासरत हैं और उन कुछ नामों में से वो एक नाम हैं, जो सभी साहित्यिक मंचो का हिस्सा रहते हैं और हिंदी पर गहराई और गंभीरता से काम कर रहे हैं. सौरभ की कविताओं के बारे में प्रसिद्ध नाटककार, अभिषेक मजूमदार लिखते हैं, “सौरभ की कविताएं ऐसी सोच से उत्पन्न होती हैं, जिसमें जीवन के हर पहलू को काव्यात्मक कर देने की क्षमता है. सौरभ राय काव्य की कई शैलियों से गुज़रते हुए हमें उस मुक़ाम पर ले जाते हैं जहां किसी बच्चे की एक छोटी सी इच्छा से लेकर मनुष्य के जीवन-मृत्यु के प्रश्न एक जगह आकर एक हो जाते हैं.”

हाल ही में सौरभ का नवीनतम कविता संग्रह काल बैसाखी प्रकाशित हुआ, जिसे पाठकों के साथ-साथ कई वरिष्ठ साहित्यकारों और कवियों का भी प्यार मिल रहा, लोग इन कविताओं के बारे में बात कर रहे हैं और इन पर लिख रहे हैं. क्योंकि उनकी कविताएं सिर्फ कविता नहीं है, वो किस तरह का अवलोकन कर रही हैं, ये समझना ज़रूरी है. ‘काल बैसाखी’ में संकलित कविताओं के बारे में हमारे समय की वरिष्ठ कवयित्री अनामिका लिखती हैं, “इस सदी की युवा कविता को यह संग्रह नयी पहचान इस तरह देता है कि इसमें लगातार कम्प्यूटर की आभासी दुनिया से जूझते एक नए पिता की आंख से विस्थापित जीवन-जगत की विडंबनायें टटोली गयी हैं! पत्ती पत्ती बड़ी होती बिटिया खिड़की पर इंतज़ार में खड़ी है और दिन-भर के काम से थका-हारा पिता स्कूटी से घर लौट रहा है. लौटते हुए तरह-तरह की कठिन स्थितियों से जूझता हुआ वह क्या महसूस करता है, इस तरह की सामान्य जीवन-स्थितियों के बहुत बेधक चित्र संग्रह में बिखरे पड़े हैं. घर लौटकर अपनी नन्ही डिक्टेटर के हुक्म बजाते हुए, उसके बनाए सब चित्र उसी के आदेश से मिटाते हुए कवि के सामने संसार के बनने-मिटने के कई दार्शनिक प्रश्न घुमड़ आते है. खेल-खेल में उसे ज्यामिति का त्रिकोण पढ़ाते हुए, आस-पास बिखरी त्रिकोणात्मक आकृतियां दिखाते हुए सांख्य दर्शन की त्रिगुणात्मक प्रकृति का वैभव याद आता है. पिछले कुछ दशकों में युवकों की स्त्री-दृष्टि कितनी बदली है और उनकी दृष्टि में अपनी बेटी के लिए ही नहीं, पूरी धरती के लिए वात्सल्य कितना गहराया है- इसके उत्कट उदाहरण के रूप में भी यह संग्रह पढ़ा जा सकता है.”

Sourav Roy

‘कविता संग्रह काल बैसाखी’

जो जैसा है, उसे ठीक वैसे ही लिख देना आसान नहीं बल्कि और मुश्किल हो जाता है, लेकिन सौरभ की कविताओं में ये कमाल आपको भरपूर मात्रा में पढ़ने को मिलेगा. शायद एक अच्छी कविता वही है, जो अपने पाठक को कनेक्ट करती है और समझ में आ जाती है. उनकी कविताएं एक कहानी की तरह शुरु होती हैं जिनका अंत भी रोचक होता है. आईये सौरभ राय की वो ज़रूरी कविताएं पढ़ते हैं, जिन्हें पढ़ा जाना और पढ़ते हुए ये समझना बेहद ज़रूरी है, कि कविता क्या कहना चाह रही है… कविताएं नवीनतम कविता संग्रह ‘काल बैसाखी’ से ली गई हैं.

पहाड़ों पर ज्यामिति क्लास
बोर्ड पर तीन बार चॉक चलाकर
उसने पूछा
बताओ, कहां कहां है त्रिभुज?

बच्चों ने स्मृतियां टटोलीं
केक का टुकड़ा त्रिभुज
नुक्कड़ के समोसे त्रिभुज

स्कूल की छत
देवदार के पेड़
कोने वाली ताक त्रिभुज

बिल्ली के कान
खच्चर का मुंह
प्रिंसिपल की नाक त्रिभुज.

वह हंसी
और ले गई बच्चों को
खिड़की के पास

देखो पहाड़
नेपथ्य में तीव्र से शांत से
त्रिभुज

त्रिभुज आकार है संतुलन का
त्रिभुज की ओर दौड़ता जाता है आकाश
और लौटता है हरे जंगल बनकर

बादल बदल जाते हैं नदी में
और आदमी लौटता है जैसे
खोलकर तीसरी आंख.

वो हंसती रही-
मछुआरे का जाल त्रिभुज
बुनाई की चाल त्रिभुज

मजदूर की पीठ
मां की कोख
झुका हुआ सर त्रिभुज

पुल का स्थायित्व
तराज़ू का दायित्व
ढहा हुआ घर त्रिभुज

बच्चो
त्रिभुज आकार है संतुलन का
त्रिभुज को नमस्कार करो.

मिटाओ
छोटी दो साल की बिटिया
पेन्सिल लेकर आई
कागज़ पर काटकूट कर
मुझसे बोली-
मिटाओ.

रबड़ से मिटाते हुए
मैं सोच ही रहा था-
इसमें क्या मज़ा
कि आप जो लिखें
सामने वाला मिटा दे!

कि इस बार उसने पेंसिल पैंसठ दफ़ा पूरा घिसा
मछली के पेट में हाथी की सूंड़ पर आकाशगंगा
जिसे मिटाने में काफी वक़्त लगा
आखरी क्षणों तक उसकी पेन्सिल लाठी लेकर मेरा कर रही थी पीछा
और रबड़ के बहते आंसुओं के समुन्दर में
लिखने और मिटाने का फ़र्क़ तक
मिट चुका था.

और अब जब मैं लिख रहा हूं यह कविता
मैडम चीस चुकी है पूरी कॉपी
और पकड़ा गई है मुझे-
मिटाओ.

खर्राटे
कितनी अनोखी है
देखा जाए तो एक सांस…

पहाड़ चढ़ता आदमी
चट्टान पर निढाल पड़ा हुआ

वो देह की मशीन में बज रहा है…
खुली मांद में गूंज रहा है
मन अचेतन

वो घरों में बज रहा है
वो बाल्टियों में बज रहा है
वो चाय के प्यालों में बज रहा है

उसके इशारे पर डोलते है धरती आकाश
चाहता है वो
दुनिया बदल दे…

नींद में वो सब कर देता है
जो नहीं कर सकता है

ठक्-ठक् आती है सिर्फ पत्थर रगड़ने की आवाज़
फैलती है जैसे जंगल की आग
वो जम्हाई लेता है.

तुम्हारी हंसी
दरवाज़े पर लहराते परदे जैसी
तुम्हारी हँसी

मैं बढ़ाता कदम-
और फैल जाती तुम्हारी हंसी
पानी पर कच्चे तेल की तरह

सुबह के समय
जब ज़मीन पर नहीं बनतीं परछाइयां
अंडे में धूप-सी उतर आती
खिड़की के खुलने सी लपकती वापिस
और पगडण्डी-सी चलती
देर तक साथ

तुम्हारी हंसी
पृथ्वी पर बीज-सी झरती
जामुन जैसी आंखों में भर आता स्वाद
और नीले पड़ जाते देखो-
मेरे दांत.

जंगल के जानवर और वर्तनी की गलतियां
पिछली दफ़ा गेंदा लिखना चाहा
और गैंडा लिख दिया
काफ़ी देर तक एक पूरी की पूरी कविता
मेरी नाक में चुभती रही

हिप्पी की जगह हिप्पो लिखा
कीबोर्ड की गलती थी कि ‘आई’ ‘ओ’ के इतने पास था
वैसे मैं हिप्पु भी लिख सकता था
मगर हिप्पो लिखा
फिर उस दिन मैंने हिप्पो के नथुनों से धुआँ निकलते देखा
पुराने रॉक गानों पर मटकाते देखा कमर
उस दिन मालूम पड़ा
कि हिप्पो कितना शांतिप्रिय जानवर है

घोड़ा को घड़ा लिख दिया
इसे मिटाना आसान था
मगर कई दिनों के बाद
जब सचमुच का घोड़ा देखा
कैसा दरक गया कंठ-
यह कैसी ध्वनि थी दूर तक टापों की
जो मेरी गलतियों से निकल
घोड़े की प्यास बुझा रहा था

फिर एक बार
हंस को हँस पढ़ा
और हँस पड़ा

अक्सर हाथी को हाथ लिख देता था
अच्छा हुआ कि इस वजह से
हाथों पर छड़ी पड़ी थी
हाथी पर पड़ती तो शायद भड़क जाता
बस इसी तरह हाथी ने
हाथों पर चलते हुए
मेरी भाषा में प्रवेश किया था

ताज्जुब यह
कि मैं बटोर को बटेर
बालू को भालू
और बाग़ को बाघ की तरह ही
देखता सोचता याद करता था
मेरी कल्पना में इनके नाम गलत थे
रूप नहीं

अफ़सोस !
इन दिनों मैं अक्सर
जानवरों के नाम
और वर्तनी से अधिक
भूल जाता हूं
इन जानवरों को.

लिंग परिवर्तन
मूल शब्द हमेशा पुल्लिंग होता है
मसलन देवता
मल्लाह
कवि
मगर इनमें भी कुछ अपवाद हैं
मसलन नक्षत्र
नदियां
भाषाएं
जिनका ढूंढें नहीं मिलता
कोई पुरुष पर्याय

बड़ी चीज़ को और बड़ा करना है?
उसे पुरुष बना दीजिए
मसलन बिलौटा
रस्सा
नाला

छोटी चीज़ को और छोटा करना है ?
उसे कर दीजिए स्त्री
मसलन डिबिया
प्याली
पत्ती

लिंग बदलना आसान है
ठोंक दीजिए अंत में ई इया या इनी
और आंख बंद कर ईकारांत शब्द से
गंध लीजिए स्त्री की
मगर इनमें भी अपवाद हैं
मसलन हाथी पुल्लिंग
स्त्रीलिंग हथनी
धोबी पुल्लिंग
स्त्रीलिंग धोबिन

भाषा पुरुषों की बनाई है
लेकिन इसमें फायदा स्त्रियों का है
मसलन डॉक्टरनी का पति बेनाम मरे
लेकिन डॉक्टर की पत्नी हमेशा डॉक्टराइन
चमार की पत्नी हमेशा चमारिन
पटवारी की पत्नी हमेशा पटवारिन
पंडित की पत्नी हमेशा पंडिताइन

भले ही वे चांद पर चली जाएं
पुरुष बोलेगा देखो चांद पुल्लिंग.

छुट्टियों में घर
छुट्टियों में घर चला
अपने घर अपने बाबा के घर चला

उतना चला जितना घर मेरा था
साल में एक बार घर मेरा घर था
घर का एक कमरा
कमरे का एक टेबल
टेबल से छिटकी रोशनी
टेबल तले दबा अँधेरा मेरा था

छुट्टियों में घर को फुर्सत थी मुझे अपनाने की
और मुझे फुर्सत थी अपना लिये जाने की
मैं जिस घर में पैदा नहीं हुआ
बड़ा नहीं हुआ
वह घर मुझमें पैदा होने की
बड़े होने की पुरजोर कोशिश कर रहा था

घर से मेरी पसंद की खुशबू आ रही थी-
आज बना होगा मेरी पसंद का पोस्तुबड़ा
की जाएंगी पसंद की बातें
शहरी छोरा गांव में नये कपड़े पहनकर
बन जाऊंगा यहां का राजा बाबू
छोटी चीज़ों के बड़ी बातें ढूंढता
मैं बच्चों से बतियाऊंगा
सबको पसंद आऊंगा…

घर के बाहर का रास्ता मेरी परछाई थी
शांत ठंडी काली टेढ़ी-मेढ़ी-सी
रास्ते में जगह जगह गड्ढे थे
अपने रोज़मर्रा के झमेलों में डूबे हुए
कुछ से अनजान कुछ मैं भूल चुका था
मेरे गड्ढों में पानी नहीं कीचड़ था

अपनी परछाई पर चल
घर का दरवाज़ा खटखटाता सोच रहा था-
किसी अनजान आदमी ने दरवाज़ा खोला तो क्या कहूंगा ?

मेरा घर
मुझमें प्रवेश
कर रहा था.

टकराना
चलते हुए आदमी से टकराया तो माफ़ी मांगी
लिफ्ट में टकराया स्त्री से तो आंखें बचाईं शरमाकर माफ़ी मांगी
साइकिल से टकराई साइकिल तो वह बूढ़ा मुझे उठाने दौड़ा चेन लगाई हैंडिल सीधी की
उस शाम उसका खून सना टखना मैं करता रहा याद
जब टकराईं मोटरसाइकिलें मैंने मरोड़े कॉलर हगवाए पैसे
भिड़ा दी कार तो दोनों उतरे अलग-अलग भाषाओं में गरियाते
और कितने पास से देखी मृत्यु जब वो लौटा पलटकर
डिक्की से स्पैनर निकाल

जैसे तैसे बचा स्टीयरिंग मोड़ी
फिर मैंने पैदल चलतों पर हॉर्न मारा
जाहिल ! गंवार !

सौरभ के कविता संग्रह काल बैसाखी की कविताओं को पढ़ने के बाद हमारे समय के वरिष्ठ कवि अरुण कमल लिखते हैं, “सुपरिचित कवि सौरभ राय का यह नवीनतम कविता संग्रह न केवल कवि के निजी विकास को अभिप्रमाणित करता है वरन समकालीन हिन्दी कविता के लिए एक नये अनुभव-लोक का आविष्कार भी करता है. यह संग्रह कवि के व्यक्तित्व के और उसकी जीवन संलग्नता के सर्वथा नये आयामों को प्रस्तुत करता है. सुदूर स्मृतियों से लेकर हाशिए पर पड़े जीवन और भूमंडलीकरण के त्रास से बिद्ध वर्तमान सामाजिक यथार्थ तक सौरभ की कविताओं का परिक्रमा पथ विस्तृत और बहुल है. घर, छूटे या छूटते घर की यादें, दादू दादी कुटुम्ब के मर्मस्पर्शी चित्रों की एक पूरी वीथी यहां मौजूद है. इसमें एक बहुत प्यारी कविता दादी के नये डेंचर्स पर है जो यूं भी अनूठा विषय है. सौरभ ने कुछ अप्रत्याशित विषयों पर कविताएं लिखी हैं जिनमें एक कविता पहाड़ों में ज्यामिति क्लास भी है. और एक कविता राजचिन्ह शेरों के लोप परंतु उनकी प्रतीकात्मक राजनैतिक या शासकीय उपस्थिति पर है- भारत, यूरोपीय देशों से लेकर श्रीलंका व इंग्लैंड तक, जो एक नायाब और बेधक राजनैतिक कविता है. यह कविता सौरभ का विशिष्ट योगदान है समकालीन कविता को और इस बात का प्रमाण कि राजनैतिक कविता किसी भी तरह से संभव है, लगभग भूमिगत विचारबोध के साथ. सौरभ राय की कुछ मार्मिक कविताएं पारिवारिक जीवन को लेकर रची गयी हैं जिनमें एक कविता बेटी के प्रति भी है. बेटी पर लिखी यह कविता मार्मिक तो है ही, साथ ही यह जीवन के वृहत्तर आशयों और संभावनाओं को भी इंगित करती है. सौरभ ने शादी का फ़ोटोग्राफ़र और कार सर का ट्यूशन तथा काफ़्का की कॉपी सरीखी कविताओं में परिवार के अर्थ को विस्तार दिया है और बड़े अपनेपन से अपने पड़ोस को कविता में नागरिकता दी है. ऐसा करते हुए सौरभ राय ने एक नयी भाषा संभव की है जो प्रांजल भी है और खुरदुरी भी. विज्ञान के ब्योरों का भी कल्पनाप्रवण उपयोग सौरभ करते हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसी कविताएं केवल इसी शताब्दी में संभव थीं. इस संग्रह के साथ सौरभ ने अपना निजी स्वर पा लिया है जो कल होकर हिन्दी कविता का केन्द्रीय स्वर बनेगा, ऐसी आशा है.”

सौरभ की कविताओं पर उर्दू कवि शारिक़ लिखते हैं, “सौरभ राय की कविताएँ शब्द और अर्थ दोनों स्तर पर हमें शिद्दत से प्रभावित करती हैं. गहरी नाटकीयता से भरी ये कविताएँ कवि के आत्मचिंतन से पैदा हुए सौंदर्य के असाधारण नमूने हैं.” साथ ही वरिष्ठ कवयित्री सविता सिंह (पहल 111 से साभार) लिखती हैं, “ये कविताएँ हमें अपने नये यथार्थ में धकेल देती हैं और कहती हैं इसमें कि पुराने भ्रमों से आगे जाने का अब रास्ता नहीं मिलेगा. हिंदी कविता की नई दिशा भी इसी स्वीकार से मिल सकेगी.” सौरभ राय से जुड़ना चाहते हैं या उनके लिखे पर किसी भी तरह की टिप्पणी देना चाहते हैं तो आप सीधे सौरभ से sourav894@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

Tags: Book, Hindi poetry, Literature

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