धार्मिक विसंगतियों पर करारा प्रहार है विष्णु प्रभाकर की कहानी ‘रहमान का बेटा’

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विष्णु प्रभाकर कहते थे- ‘एक साहित्यकार को सिर्फ यह नहीं सोचना चाहिए कि उसे क्या लिखना है, बल्कि इस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या नहीं लिखना है. हर आदमी दूसरे के प्रति उत्तरदायी होता है. यही सबसे बड़ा प्रेम का बंधन है. मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति मनुष्य है. अपनी समस्त महानता और हीनता के साथ, अनेक कारणों से मेरा जीवन मनुष्य के विविध रूपों से एकाकार होता रहा है और उसका प्रभाव मेरे चिंतन पर पड़ता है. कालांतर में वही भावना मेरे साहित्य की शक्ति बनी. मेरे साहित्य का जन्म मेरे जीवन की त्रासदियों से हुआ है.’

देश के जाने-माने साहित्यकार विष्णु प्रभाकर का घर का नाम विष्णु दयाल था. एक संपादक के सुझाव पर उन्होंने ‘प्रभाकर’ उपनाम रख लिया. उनका छात्र जीवन अनवरत अभावग्रस्त रहा था. स्कूली पढ़ाई ठीक से नहीं कर पाए. घर-गृहस्थी चलाने के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की नौकरी करनी पड़ी. इस दौरान भी पाठ्यक्रम में व्यस्त रहे. हिन्दी में प्रभाकर, हिन्दी भूषण, संस्कृत में प्रज्ञा की डिग्री प्राप्त की. हिसार में नाटक मंडली में काम किया और बाद के दिनों में उन्होंने लेखन को ही अपनी जीविका का आधार बना लिया. उनके जीवन पर गांधीवाद की गहरी छाप रही. लेखनी के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र, अज्ञेय जैसे शीर्ष साहित्यकारों के सहयात्री बने. गांधी जी की अहिंसा में विष्णु प्रभाकर की पूरी आस्था थी. वे मूलत: मानवतावादी थे. मानवता की खोज ही उनका लक्ष्य था. वे मानते थे, कि अहिंसा की स्थापना के बिना मानवता का कल्याण नहीं.

कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल साहित्य सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद ‘आवारा मसीहा’ उनकी पहचान का पर्याय बनी. ‘अर्द्धनारीश्वर’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. उन्होंने अपना पहला नाटक ‘हत्या के बाद’ लिखा और हिसार में एक नाटक मंडली के साथ सक्रिय हो गए. इसके बाद तो उन्होंने लेखन को ही अपनी जीविका का आधार बना लिया.

विष्णु प्रभाकर की कहानियों में अनेक विशेषताएं मिलती हैं. अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने हमेशा झूठ, पाखंड, सामाजिक आदर्श, घृणा, यथार्थ और संवेदना का चित्रण करने की कोशिश की. उनके प्रयास ने हिंदी साहित्य को एक अलग पहचान दी. उनके शब्दों, विचारों और कलम की ताकत हमेशा उनके साहित्य में परिलक्षित हुई. आइए पढ़ते हैं विष्णु प्रभाकर की लोकप्रिय कहानी ‘रहमान का बेटा’…

रहमान का बेटा : विष्णु प्रभाकर
क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तल्खी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठता था. यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह किसी बच्चे को पीट कर अपने दिल का गुबार निकालता. गोपी ने आ कर दूर से ही पुकारा- ‘साहब सलाम भाई रहमान. कहो क्या बना रहे हो?’

रहमान के मस्तिष्क का पारा सहसा कई डिग्री नीचे आ गया, यद्यपि क्रोध की मात्रा अभी भी काफी थी, बोला, ‘आओ गोपी काका. साहब सलाम.’

‘बड़े तेज हो, क्या बात है?’

गोपी बैठ गया. रहमान ने उसके सामने बीड़ी निकाल कर रखी और फिर सुलगा कर बोला- ‘क्या बात होगी काका! आजकल के छोकरों का दिमाग बिगड़ गया है. जाने कैसी हवा चल पड़ी है. मां-बाप को कुछ समझते ही नहीं.

गोपी ने बीड़ी का लंबा कश खींचा और मुस्कुरा कर कहा- ‘रहमान, बात सदा ही ऐसी रही. मुझे तो अपनी याद है. बाबा सिर पटक कर रह गए, मगर मैंने चटशाला में जाकर हाजिरी ही नहीं दी. आज बुढ़ापे में वे दिन याद आते हैं. सोचता हूं. दो अच्छर पेट में पड़ जाते तो…’

बीच में बात काटकर रहमान ने तेजी से कहा- ‘तो काका, नशा चढ़ जाता. अच्छरों में नाज से ज्यादा नशा होवे है, यह दो अच्छर का नशा ही तो है जो सलीम को उड़ाए लिए जावे है. कहवे है इस बस्ती में मेरा जी नहीं लगे. सब गंदे रहते हैं. बात करने की तमीज नहीं. चोरी से नहीं चूकें…’

गोपी चौंक कर बोला- ‘सलीम ने कहा ऐसे?’

‘जी हां, सलीम ने कहा ऐसे और कहा, हम इंसान नहीं हैं, हैवान हैं. फिर हम जैसे नाली में कीड़े बिलबिलाए हैं न, उसी तरह की हमारी जिंदगी है…’ कहते-कहते रहमान की आंखें चढ़ गईं. बदन कांपने लगा. हुक्के को, जिसे उसने अभी तक छुआ नहीं था, इतने जोर से पैर से सरकाया कि चिलम नीचे गिर पड़ी और आग बिखर कर चारों ओर फैल गई. तेजी से पुकारा- ‘करीमन! ओ हरामजादी करीमन! कहां मर गई जा कर? ले जा इस हुक्के को. साला आज हमें गुंडा कहवे है…’

गोपी ने रहमान की तेजी देख कर कहा- ‘उसका बाप स्कूल में चपरासी था न!’

‘जी हां, वही असर तो खराब करे है. पढ़ा नहीं था तो क्या; हर वक्त पढ़े-लिखे के बीच रहवे था. मगर साले ने किया क्या? भरी जवानी में पैर फैला कर मर गया. बीवी को कहीं का भी नहीं छोड़ा. न जाने किसके पड़ती, वह तो उसकी मां ने मेरे आगे धरना दे दिया. वह दिन और आज का दिन; सिर पर रखा है. कह दे कोई, सलीम रहमान की औलाद नहीं है. पर वह बात है काका…’

आगे जैसे रहमान की आंख में कहीं से आ कर कुणक पड़ गई. जोर-जोर से मलने लगा. उसी क्षण शून्य में ताकते-ताकते गोपी ने कहा- ‘सलीम की मां बड़ी नेकदिल औरत है.’

रहमान एकदम बोला- ‘काका, फरिश्ता है. ऐसी नेकदिल औरत कहां देखने को मिले है आजकल. क्या मजाल जो कभी पहले शौहर का नाम लिया हो! ऐसी जी-जान से खिदमत करे है कि बस सिर नहीं उठता. और काका उसी का नतीजा है. तुमसे कुछ छुपा है. कभी इधर-उधर देखा है मुझे?’

गोपी ने तत्परता से कहा- ‘कभी नहीं रहमान, मुंह देखे की नहीं ईमान की बात है. पांच पंचों में कहने को तैयार हूं.’

‘और रही चोरी की बात! किसी के घर डाका मारने कौन जावे है. यूं खेत में से घास-पात तुम भी लावो ही हो काका.’

गोपी बोला- ‘हां लावूं हूं. इसमें लुकाव की क्या बात है. और लावें क्यों न? हम क्या इतने से भी गए? बाबू लोग रोज जेब भर कर घर लौटे हैं. सच कहूं रहमान! तनखा बांटते वक्त अंगूठा पहले लगवा लेवे हैं और पैसों के वक्त किसी गरीब को ऐसी दुत्कार देवें कि बिचारा मुंह ताकता रह जावे है. इस सत्यानाशी राज में कम अंधेर नहीं है. पर बेमाता ने हमारी सरकार की किस्मत में न जाने क्या लिख दिया है, दिन-रात चौगुनी तरक्की होवे है. गांधी बाबा की कुछ भी पेश नहीं आवे.’

रहमान ने सारी बातें बिना सुने उसी तेजी से कहा-‘बाबू क्यों वे जो अफसर होते हैं, साब बहादर, वे क्या कम हैंय़ किसी चीज पर पैसा नहीं डालें हैं. और काका! यह कल का छोकरा सलीम हमें गुंडा बतावे है. गुंडे साले तो वे हैं. सच काका! कलब में बाबू लोग सिवाय बदमाशी के करें क्या हैं. शराब वे पिएं, जुआ वे खेलें और…’

‘और क्या? हमारे साब के पास आए दिन कलब का चपरासी आवे है. कभी सौ, कभी डेढ़ सौ, सदा हारे ही हैं, पर रहमान, उसकी मेम बड़ी तकदीर की सिकंदर है. जब जावे तब सौ-सवा सौ खींच लावे है.’

‘मेम साब… काका, तुम क्या जानो. उसकी बात और है. जितने ये साब बहादुर हैं, और साब क्यों, बड़े-बड़े वकील, बलिस्टर, लाला, सभी आजकल कलब जावे हैं. मुसलमान को शराब पीना हराम है; पर वहां बैठ कर विस्की, जिन, पोरट, सेरी सब चढ़ा जावे हैं. औरतें ऐसी गिर गई हैं कि पराए मरद के कमर में हाथ डाल कर लिए फिरे हैं, और वे हंस-हंस कर खिलर-खिलर बातें करे हैं. काका! जितनी देर वे वहां रहवे हैं; ये यही कहते रहे हैं – उसकी बीवी खूबसूरत है. इसकी जोरदार है. सरमा खुशकिस्मत है, रफीक की लौंडिया उसके घर जावे. गुप्ता की बीवी उसके पास रहे है. सारा वक्त यही घुसर-पुसर होती रहे और मौका देख कोई किसी के साथ उड़ चला. उस दिन जीत की खुशी में ड्रामा हुआ था. पुलिस के कप्तान लालाजी बने थे. वे लालाजी लोगों को हंसाते रहे और मेजर साहब उनकी बीवी को ले कर डाक बंगले की सैर करने चले गए. ये हैं, बड़े लोगन की चाल-चलन. ये हमारे आका… हमारे भाग की लकीर इन्हीं की कलम से खिंचे है.’

गोपी ने फिर जोर से बीड़ी का कश खींचा और गंभीरता से कहा- ‘रहमान! देखने में जितना बड़ा है. असल में वह उतना छोटा है.’

‘और खोटा भी.’

‘और क्या.’

‘ओर इन्हीं के लिए सलीम हमें बदतमीज, बदसहूर, बेअकल, न जाने क्या कहवे है. मैंने भी सोच लिया है, आज उससे फैसला करके रहूंगा. मैंने हमेशा उसे अपना समझा है. नहीं तो… नहीं तो…’

गोपी ने अब अपना डंडा उठा लिया. बोला- ‘रहमान, कुछ भी हो, सलीम तेरा ही लड़का माना जावे है, जवान है; अबे-तबे से न बोलना. समझा; आजकल हवा ऐसी चल पड़ी है. और चली कब नहीं थी! फरक इतना है, पहले मार खा कर बोलते नहीं थे, अब सीधे जवाब देवे हैं…’

रहमान तेज ही था. कहा- ‘मैं उसके जवाबों की क्या परवा करूं काका. जावे जहन्नुम में. मेरा लगे क्या है? …और काका. मैं उसे मारूंगा क्यों. मेरे क्या हाथ खुले हैं. मैं तो उससे दो बात पूछूंगा, रास्ता इधर या उधर. और काका, मुझे उस साले की जरा भी फिकर नहीं- फिकर उसकी मां की है. यूं तो औलाद और क्या कम हैं, पर जरा यही कुछ सहूरदार था… काका, सोचता था पढ़-लिख कर कहीं मुंशी बनेगा, जात-बिरादरी में नाम होगा. लेकिन लिखा क्या किसी से मिटा है?’

और फिर गोपी डंडा उठा, घास की गठरी कंधे पर डाल, साहब सलाम करके चला गया. रहमान कुछ देर वहीं शून्य में बैठा धुंधले होते वातावरण को देखता रहा. मन में उमड़-घुमड़ कर विचार आते और आपस में टकरा कर शीघ्रता से निकल जाते. वे झील के गिरते पानी के समान थे, गहरे और तेज. इतने तेज कि उफन कर रह जाते. उनका तात्कालिक मूल्य कुछ नहीं था, इसीलिए उससे मन की झुंझलाहट और गहरी होती गई. करुणा और विषाद कोई उसे कम नहीं कर सका. आखिर वह उठा और अंदर चला गया.

घर में सन्नाटा था. बच्चे अभी तक खेल कर नहीं लौटे थे. उसकी बीवी रोटियां सेंक रही थी. सालन की खुशबू उसकी नाक में भर उठी. उसने एक नजर उठा कर अपनी बीवी को देखा- शांत-चित्त वह काम में लगी है. उसके कानों में लंबे बाले रोटी बढ़ाते समय वेग से हिलते हैं. उसके सिर का गंदा कपड़ा खिसक कर कंधे पर आ पड़ा है. यद्यपि जवानी बीत गई है, तो भी चेहरे का भराव अभी हल्का नहीं पड़ा है. यद्यपि जवानी बीत गई है, तो भी चेहरे का भराव अभी हल्का नहीं पड़ा है. गोरी न होकर भी वह काली नहीं है. उसकी आंखों में एक अजीब सा नशा है. वही नशा उसे बरब, खूबसूरत बना देता है. जिसकी ओर वह देख लेती है एक बार, तो वह छिछक जाता है. रहमान सहसा ठिठका- उन दिनों इन्हीं आंखों ने मुझे बेबस बना दिया था. नहीं तो…

सहसा उसे देख कर उसकी बीवी बोल उठी- ‘इतने तेज क्यों हो रहे थे. गैरों के आगे क्या इस तरह घर की बात कहते हैं?’

रहमान कुछ तलखी से बोला- ‘गैरों के आगे क्या? पानी अब सर से उतर गया है. कल को जब घर से निकल जावेगा, तब क्या दुनिया कानों में रुई ठूंस लेगी या आंखें फोड़ लेगी?’

बीवी को दुख पहुंचा. बोली- ‘बाप-बेटे क्या दुनिया में कभी अलग नहीं होते?’

‘कौन कहे कि वह मेरा बेटा है?’

‘और किसका है?’

‘मैं क्या जानूं?’

‘जरा देखना मेरी तरफ! मैं भी तो सुनूं.’

तिनक कर उसने कहा- ‘क्या सुनेगी? मेरा होता तो क्या इस तरह कहता? जबान खींच लेता साले की.’

‘देखूंगी किस-किसकी जबान खींचोगे. अभी तक तो एक भी बात नहीं सराहता.’

‘बच्चे और जवान बराबर होते हैं.’

‘नहीं होवे पर पूते के पैर पालने में नज़र आ जावे हैं. और फिर वही कौन-सा जवान है? अल्हड़ उमर है. एक बात मुंह से निकल गई, तो सिर पर उठा लिया. तुम्हारा नहीं तभी तो. अपना होता, तो क्या इस तरह ढोल पीटते. अपनों के हजार ऐब नजर नहीं आवे है. दूसरों का एक जरी-सा पहाड़ बन जावे है…’

रहमान कुछ भी हो, इतना मूर्ख नहीं था. उसने समझ लिया, उसने बीवी के दिल को दुखाया है, पर वह क्या करे. सलीम से उसे क्या कम मुहब्बत है! पेट काट कर उसे रहमान ने ही तो स्कूल भेजा है. उसके लिए अब भी कभी बड़े बाबू, कभी डिप्टी, कभी बड़े साहब के आगे गिड़गिड़ाता रहता है. इतनी गहरी मुहब्बत है, तभी तो इतना दुख है. कोई गैर होता तो…

तभी उसके चारों बच्चे बाहर से शोर मचाते हुए आ पहुंचे. वे धूल-मिट्टी से लिथड़े पड़े थे. परंतु गंदे और अर्द्धनग्न होने पर भी प्रसन्न थे. सबसे बड़ी लड़की लगभग बारह वर्ष की थी. आते ही खुशी-खुशी बोली- ‘अम्मी! आज हम भइया की जगह गए थे.’

रहमान को कुछ अचरज हुआ, पर वह जला-भुना बैठा था. कड़क कर बोला- ‘कहां गई थी चुड़ैल?’

लड़की सहम गई. घबरा कर बोली- ‘भइया की जगह.’

‘कौन-सी जगह?’

‘जहां भइया जाते हैं. दूर…’

छोटा लड़का जो दस बरस का था, अब एकदम बोला- ‘अब्बा, वहां बहुत सारे आदमी थे.’

तीसरा भी आठ बरस का लड़का. आगे बढ़ आया, कहा- ‘वहां लेक्चर हुए थे.’

रहमान अचकचाया- ‘लेक्चर?’

लड़की ने कहा- ‘हां, अब्बा! लेक्चर हुए थे. भइया भी बोले थे. लोगों ने बड़ी तालियां पीटीं.’

अम्मा का मुख सहसा खिल उठा. गर्व से एक बार उसने रहमान को देखा.

फिर बोली- ‘क्या कहा उसने?’

लड़की जो मुरझा चली थी, अब दुगने उत्साह से कहने लगी- ‘अम्मी, भइया ने बहुत-सी, बातें कही थीं. हम गंदे रहते हैं, हम अनपढ़ हैं, हम चोरी करते हैं. हमें बोलना नहीं आता. हमें खाने को नहीं मिलता.’

रहमान चिहुंक कर बोला- ‘देखा तुमने.’

बीवी ने तिनक कर कहा- ‘सुनो तो. हां, और क्या लाली?’

लड़का बोला- ‘मैं बताऊं अम्मी! भइया ने कहा था, इसमें हमारा ही कसूर है.’

‘हां,’ लड़की बोली- ‘उन्होंने कहा था, बड़े लोग हमें जान-बूझ कर नीचे गिराते जावे हैं और हम बोलें ही नहीं.’

और फिर अब्बा की तरफ मुड़ कर बोली- ‘क्यों अब्बा, वे लोग कौन हैं?’

अब्बा तो बुत बने बैठे थे; क्या कहते?

लड़का कहने लगा- ‘अब्बा! और जो उनमें बड़े आदमी थे, सबने यही कहा- हम भी आदमी हैं. हम भी जिएंगे. हम अब जाग गए हैं.’

अम्मी ने एक लंबी सांस खींची. चेहरा प्रकाश से भर उठा- ‘सुनते हो सलीम की बातें.’

रहमान अब भी नहीं बोला. लड़की बोली- ‘और अम्मी. भइया ने मुझसे कहा था कि मैं अब घर नहीं आऊंगा.’

‘नहीं आएगा?’

‘हां, अम्मी.’

रहमान की निद्रा टूटी- ‘क्यों नहीं आएगा? क्योंकि हम गंदे…?’

‘नहीं अब्बा!’ लड़की आप ही आप कुछ गंभीरता से बोली- ‘भइया ने मुझसे कहा था कि अब इस घर में नहीं रहूंगा. नया घर लूंगा, बहुत साफ. अब्बा से कह दीजो कि वहां रहने से गड़बड़ हो सकती है. हम लोगों के पीछे पुलिस लगी रहती है. वहां आएगी तो शायद अब्बा की नौकरी छूट जावेगी…?’

लेकिन अब्बा हों तो बोलें. उनके तो सिर में भूचाल आ गया है. वह घूम रहा है, रुकता नहीं…

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