मजरूह सुल्तानपुरी : शब्दों का एक ऐसा जादूगर जिसने हिंदी सिनेमा और उर्दू कविता को गहरा आयाम दिया

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असरार उल हसन खान, जो कि पेशे से एक डॉक्टर थे और लोगों को दवाईयां उनकी नब्ज़ देख कर दिया करते थे, वे आगे चलकर शायर बन गए और बॉलीवुड को ऐसे नायाब गीत दिए, जो आज भी लोगों की ज़ुबान पर छाये हैं. ये वही डॉक्टर हैं, जिन्हें दुनिया मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जानती है. मजरूह का जन्म 1 अक्टूबर 1919 में सुल्तानपुर में हुआ था. इनके पिता पुलिस में थे. सुल्तानपुरी को अरबी और फारसी भाषा में महारत हासिल थी. पिताजी को अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ाना पसंद नहीं था, इसलिए मजरूह की पढ़ाई मदरसे में हुई, आगे चलकर लखनऊ में यूनानी दवाईयों की ट्रेनिंग ली और बाद में हकीम बने, लेकिन जो पहले से लिखा जा चुका था, उसे कोई भला कैसे बदल सकता था. कोई नहीं जानता था, कि आगे चलकर ये हकीम देश का इतना बड़ा उर्दू कवि बन जाएगा और हिंदी सिनेमा को ऐसे नायाब गीत देगा, जिसका कोई तोड़ नहीं होगा.

बॉलीवुड में मजरूह सुल्तानपुरी को फिल्म प्रोड्यूसर एआर करदार लेकर आए थे. पहले तो मजरूह को बॉलीवुड में काम करना पसंद नहीं था, ना ही उनकी ऐसी कोई इच्छा थी, क्योंकि उन दिनों फिल्मों में काम करना या फिर फिल्मों के लिए काम करना अच्छा नहीं माना जाता था, लेकिन करदार के समझाने और ज़िगर मुरादाबी की नसीहत ने मजरूह का मन बदल दिया. फिर उन्होंने लिखा, ‘जब उसने गेसू बिखराए बादल आए झूम के…’ नौशाद को ये गीत बहुत पसंद आया और 1946 में फिल्म शाहजहां के लिए उन्हें साइन कर लिया गया. इस गीत को भारतीय गायिका शमशाद बेगम ने गाया. गौरतलब है कि जिगर मुरादाबादी मजरूह के करीबी दोस्तों में एक थे, जिनके साथ उन्होंने कवि सम्मेलनों में साथ शिरकत की और मंचो पर भी धमाल मचाया था. ऐसा कहा जाता है कि मजरूह उनके कहे का हमेशा मान रखते थे.

“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया” ये मशहूर शेर भी मजरूह साहब की कलम से ही लिखा गया था, जो देश के उस हर व्यक्ति को याद है, जो शेरो-शायरी का शौक रखते हैं फिर साल चाहे कोई भी हो उम्र किसी की जो भी हो. जोश भरने के लिए इसका इस्तेमाल समय-समय पर कई लोगों ने किया है. शायरी की समझ मजरूह सुल्तानपुरी में बचपन से ही पनपने लगी थी, जिसने आगे के सालों में कई नये अध्याय लिखे.

‘मेरी दुनिया लुट रही थी और मैं ख़ामोश था…’ सुनने और कहने में तो ये एक गीत की पंक्तियां हैं, लेकिन ये पंक्तियां जैसे पूरी एक कहानी कहती हैं, यही वो बात थी जो मजरूह सुल्तानपुरी को बहुत आगे तक लेकर गई. इनके गीतों के बोल अक्सर प्यार, आवेश, और जीवन की तकलीफों को बयां करते थे. उनके शब्दों में एक खास तरह का नोस्टाल्जिया है, जो सुनते हुए किसी पुरानी दुनिया में ले जाकर खड़ा कर देता है, जैसे हम खुद उसका हिस्सा हों. अपने अद्वितीय काव्यात्मक क्षमता के साथ, सुल्तानपुरी ने भारतीय सिनेमा के इतिहास में अविस्मरणीय छाप छोड़ है, जिससे बड़ी कोई लकीर अब तक खींची नहीं जा सकी. “छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा…”, “हाल कैसा है जनाब का…”, “रात कली एक ख्वाब में आई…”, “एक लड़की भीगी भागी सी…”, “आंखों मे क्या जी…”, “तूने ओ रंगीले कैसा जादू किया…”, “ओ मेरे दिल के चैन…”, “अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना…”, “यूं तो हमने लाख हसीं देखे हैं तुमसा नहीं देखा…”, “चला जाता हूं किसी की धुन में…” और “सर पर टोपी लाल हाथ में रेशम का रुमाल…” ये सारे गीत मजरूह सुल्तानपुरी की कलम से ही लिखे गए.

मजरूह सुल्तानपुरी के गीत उस दौर में लिखे गए, जब हिंदी सिनेमा का सुनहरा युग चल रहा था. उन्होंने एसडी बर्मन, ओपी नय्यर, आरडी बर्मन, और शंकर-जयकिशन जैसे महान संगीतकारों के साथ मिलकर जितने भी गीत बनाए, वे सारे के सारे करोड़ों लोगों के दिलों में जाकर बस गए. उनके शब्दों में इंसानी भावनाओं को छूने की बेमिसाल क्षमता थी. सुल्तानपुरी और एसडी बर्मन के साथ से कई क्लासिक गीत बने. उनके सभी गीत सुल्तानपुरी की क्षमता को प्रदर्शित करते हैं, जिन्होंने कविता के गहरे भाव को बड़ी सरलता से व्यक्त किया. उनके कई गाने ऐसे हैं, जिन्हें सुनते हुए ये एहसास भीतर तक बैठ जाता है मानो वो सुनने वालों के साथ संवाद कर रहे हों और आज भी कई पीढ़ियों को पार करते हुए एक अनंत छाप छोड़ते हैं. आरडी बर्मन के साथ ही ‘यादों की बारात’ (1973) के “चुरा लिया है तुमने” जैसे गीत बने, जिन्होंने ये बताया कि सुल्तानपुरी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. भाव चाहे जो भी हों, संगीत चाहे जो भी हो, लेकिन शब्दों को समय की रफ्तार के साथ कैसे बदल देना है, ये उन्हें अच्छे से आता था. वे नौशाद के क्लासिक्स में भी खरे उतरते थे और आरडी बर्मन के रॉक नंबर्स में भी.

फिल्मों के अलावा, मजरूह सुल्तानपुरी सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और कमजोरों के अधिकारों का समर्थन करने के लिए कई प्रगतिशील लेखकों के आंदोलनों का हिस्सा भी बने और वहां सक्रिय भूमिका निभाई. अपनी कविताओं से उन्होंने एक क्रांति ला दी, जिसे पचा पाना लोगों के बस की बात नहीं थी. उनकी कविताएं सामाजिक और राजनीतिक बुराईयों को भी उजागर करती थीं. सुल्तानपुरी को भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए. अपने गीतों के लिए उन्हें कई फिल्मफेयर अवॉर्ड और दादासाहेब फाल्के पुरस्कार भी दिया गया, जो भारतीय सिनेमा में उनके महत्वपूर्ण योगदान को दर्शाता है.

24 मई 2000 में मजरूह सुल्तानपुरी ने दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनकी आवाज़ और उनके शब्द आज भी ज़िंदा हैं. उनका लेखन आज भी बांधे रखने की काबिलियत रखता है. उनके पाठक ही उनकी विरासत हैं, जिन्हें कोई उनसे अलग नहीं कर सकता. उनकी गीतों की धुनें आज भी जब गूंजती हैं, तो उनकी खूबसूरत कल्पनाशीलता की याद दिलाती हैं. भावनाओं, कल्पनाओं और संगीतों की दुनिया में उनका नाम बहुत ऊपर है. उनका जीवन एक जश्न की तरह था. आज उनका नहीं होना सिर्फ हिंदी सिनेमा, उर्दू कविता या साहित्य जगत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए कुछ ‘अपना-सा’ खो जाने जैसा है.

मजरूह सुल्तानपुरी के वो ज़रूरी शेर जिनकी दो पंक्तियां ही पूरी की पूरी कहानी बयां होती हैं…

“ज़बां हमारी न समझा यहां कोई ‘मजरूह’
हम अजनबी की तरह अपने ही वतन में रहे”

“मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से”

“शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया”

“जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूं सभल के बैठ गए
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की”

“दिल की तमन्ना थी मस्ती में मंज़िल से भी दूर निकलते
अपना भी कोई साथी होता हम भी बहकते चलते चलते”

“रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या ‘मजरूह’
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं”

“हम हैं का’बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए”

“फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए ‘मजरूह’
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने”

Tags: Books, Hindi poetry, Literature, Literature and Art, Poet

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