कितनी नावों में कितनी बार : अज्ञेय की वो कविताएं जो आज भी सफर में अपना अर्थ तलाश रही हैं

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साहित्य की दुनिया में, कविता एक विशेष स्थान रखती है, क्योंकि वह जीवन की भावनाओं, अनुभवों और दर्शनों को सुंदरतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन यानी कि अज्ञेय का प्रसिद्ध काव्य संग्रह “कितनी नवों में कितनी बार” पाठकों को एक परिवर्तनकारी यात्रा पर आमंत्रित करता है. इस संग्रह में विभिन्न विषयों पर कविताएं हैं जो प्यार, आकांक्षा, अस्तित्व और जीवन की अस्थायी प्रकृति जैसे विषयों पर विचार करती हैं. इस किताब की हर कविता एक अद्वितीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो पाठकों को उनके अपने अनुभवों पर विचार करने और साझी मानवीय स्थिति में आराम ढूंढने के लिए प्रेरित करती है. अज्ञेय वो कवि रहे, जिन्होंने दुनिया छोड़ने के बाद भी अपने पाठकों से अपनी कविताओं, कहानियों और लेखों के माध्यम से संपर्क बनाए रखा और जिन्हें आज भी उन्हें चाहने वाले उसी शिद्दत से पढ़ते हैं, जैसे उनके जीवित दिनों में उन्हें पढ़ा जाता था. अपनी कविताओं के ज़रिए वे पाठक से संवाद करते हैं, उनकी कविताएं पाठक की मनस्थिति पर इतना गहरा प्रभाव डालती हैं, कि एक कविता के बाद दूसरी कविता पढ़ने की छटपटाहट बढ़ती जाती है. एक तरह से देखा जाए तो उनकी शैली में सरलता और जटिलता दोनों का संयोजन था. अपनी कविताओं में वे प्राकृतिक दृश्यों का जीवंत चित्रण करते हैं, उनकी खूबसूरती को पकड़ते हैं और मानवीय अनुभव के साथ उनकी तुलना करते हैं. अपनी पंक्तियों के माध्यम से, वे सभी जीवित प्राणियों के आपसी संबंध की महत्त्वाकांक्षा को जोड़ते हैं और उसकी प्रेरणा प्राकृतिक दुनिया से लेते हैं. वहीं दूसरी तरफ अज्ञेय धार्मिकता और आंतरिक ज्ञान की भी खोज करते हैं.

अज्ञेय का कविता संग्रह “कितनी नावों में कितनी बार” एक अद्भुत संग्रह है, जो साहसिक और विचारशील पाठकों को सोचने और साझा करने पर मजबूर करता है. ये किताब रुकती नहीं है, चलती रहती है… खत्म होने के बाद भी, लगातार चलती रहती है. वैसे तो इस संग्रह की हर कविता प्रभाशाली है, लेकिन यहां हम आपसे वो चुनिंदा कविताएं साझा कर रहे हैं, जिन्हें पढ़ा जाना बेहद ज़रूरी है-

उलाहना
नहीं, नहीं, नहीं!

मैंने तुम्हें आंखों की ओट किया
पर क्या भुलाने को?
मैंने अपने दर्द को सहलाया
पर क्या उसे सुलाने को?

मेरा हर मर्माहत उलाहना
साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा!

ओ मेरे प्यार! मैंने तुम्हें बार-बार, बार-बार असीसा
तो यों नहीं कि मैंने बिछोह को कभी भी स्वीकारा.

नहीं, नहीं नहीं!

कितनी नावों में कितनी बार
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल.
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत-
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार…

और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहां नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य-
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयां…
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त-
कितनी बार!

जीवन
चाबुक खाए
भागा जाता
सागर-तीरे
मुंह लटकाए
मानो धरे लकीर
जमे खारे झागों की-
रिरियाता कुत्ता यह
पूंछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए.

कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से!

समय क्षण-भर थमा
समय क्षण-भर थमा सा:
फिर तोल डैने
उड़ गया पंछी क्षितिज की ओर:
मद्धिम लालिमा ढरकी अलक्षित.
तिरोहित हो चली ही थी कि सहसा
फूट तारे ने कहा: रे समय,
तू क्या थक गया?
रात का संगीत फिर
तिरने लगा आकाश में.

गृहस्थ
कि तुम
मेरा घर हो
यह मैं उस घर में रहते-रहते
बार-बार भूल जाता हूँ
या यों कहूं कि याद ही कभी-कभी करता हू:
(जैसे कि यह
कि मैं सांस लेता हूं:)
पर यह
कि तुम उस मेरे घर की
एक मात्र खिड़की हो
जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को,
प्रकाश को देखता हूं, पहचानता हूं,
-जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस
पाता और पीता हूं-
जो वस्तुएं हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूं,
-जिस में से ही
मैं उस सब को भोगता हूं जिस के सहारे मैं जीता हूं
-जिस में से उलीच कर मैं
अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूं-
यह मैं कभी नहीं भूलता:
क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर
मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूं-
कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूं-
और तुम-तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो
तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने
मेरे साथ हो.

स्वप्न
धुएं का काला शोर:
भाप के अग्निगर्भ बादल:
बिना ठोस रपटन में उगते, बढ़ते, फूलते
अन्तहीन कुकुरमुत्ते,
न-कुछ की फांक से झांक-झांक, झुक कर
झपटने को बढ़ रहे भीमकाय कुत्ते.
अग्नि-गर्भ फैल कर सब लील लेता है.
केवल एक तेज-एक दीप्ति:
न उस का, न सपने का कोई ओर-छोर:
बिना चौंके पाता हूं कि जाग गया हूं.
भोर…

जो रचा नहीं
दिया सो दिया
उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं.
पर अब क्या करूं
कि पास और कुछ बचा नहीं
सिवा इस दर्द के
जो मुझ से बड़ा है-इतना बड़ा है कि पचा नहीं-
बल्कि मुझ से अंचा नहीं-
इसे कहां धरूं
जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूं
क्योंकि वह तो एक सच है
जिसें मैं तो क्या रचता-
जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं!

मन बहुत सोचता है
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएं,
पहाड़ी नदीः पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारंग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूं भी तो सुनने को कोई पास न हो-
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

इस किताब की हर कविता आपको अपने आप से मिलवाती है और शायद हम सबके प्रिय अज्ञेय से भी जिन्होंने इन कविताओं को लिखा. कविताओं को पढ़ते हुए ये लगता है आपने अपने प्रिय कवि अज्ञेय को थोड़ा और करीब से जान लिया. उनकी हर कविता पाठक को उनके थोड़ा और करीब लेकर जाती है. इसके दूसरे संस्करण पर अज्ञेय ने लिखा था, कविताओं के किसी भी संग्रह का पुनर्मुद्रण सुखद विस्मय का कारण होता है, और कवि के लिए तो और भी अधिक. मेरी तो यही धारणा थी कि ‘कितनी नावों में कितनी बार’ के लोकप्रिय होने की संभावना बहुत कम, यद्यपि उसमें कुछ कविताएं ऐसी अवश्य हैं जिन्हें मैं अपनी जीवन-दृष्टि के मूल स्वर के अत्यंत निकट पाता हूं.

साल 1978 में ‘कितनी नावों में कितनी बार’ को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसमें अज्ञेय की साल 1962 से 1966 के बीच रचित कविताओं के संकलित किया गया है. वैसे तो अज्ञेय की कविताओं के किसी भी संग्रह को कहा जा सकता है कि वह उनकी जीवन-दृष्टि का परिचायक है, लेकिन यह संग्रह इसलिए भी खास हो जाता है, क्योंकि खरी अनुभूति की टंकार इसमें मुख्य रूप से गूंजती है. मनुष्य की गति और उसकी नियति की ऐसी मजबूत पकड़ हिंदी कविताओं में दुर्लभ है.

Tags: Books, Hindi Literature, Hindi poetry, Literature

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