शायर मुनव्वर राना का रचना संसार ऐसा है जो हमेशा, जिंदगी के तमाम मोड़ों पर किसी न किसी बहाने याद आता रहता है. दो वजहें समझ में आती हैं. एक तो उन्होंने रिश्तों की शायरी की दूसरे, उनकी शब्दावली आमफहम है. बोलचाल वाली है. शायरी के लिए उनकी सोच में रिश्तों की गहराई है तो वे बातें भी हैं, जिनसे आदमी का पाला पड़ता ही रहता है. देखिए –
अब दूरियों की कोई हक़ीक़त नहीं रही
दुनिया सिमट के छोटे से सिम में आ गई.
चुहल करते हुए लिखते हैं, तो भी पचास के दशक में जन्मे इस शायर ने कुछ ऐसा रच दिया कि किसी को सुनाया जाय तो उसके होठों पे मुस्कान खिल ही जाती है –
बदले में एसएमएस के उसे फोन किया कर
दुनिया किसी गूंगे की कहानी नहीं सुनती.
निश्चित तौर पर ये दोनो शेर मुनव्वर की शायरी के नमूने या प्रतिनिधि नहीं हैं. शायरी की उनकी दुनिया गहरे फलसफे और सोच पर टिकी है. इसकी बुनियाद खास तौर से रिश्तों की नींव पर है. ये गांव मिट्टी और मुल्क से उनका जुड़ाव, रिवायतों के प्रति उनकी निष्ठा से समृद्ध होती है. वे कहते भी हैं-
आपके शहर से (लखनऊ)
ख़ुद से चल के नहीं ये तर्ज़ ए सुखन आया है
पांव दाबे हैं बुजुर्गों के तो ये फ़न आया है.
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मुनव्वर की शायरी में मां
मुनव्वर की नस्र यानी गद्य की किताब – “सफेद जंगली कबूतर” में कुछ दशकों पहले तक के मिली जुली रिवायतों की प्रति बेशुमार मोहब्बत और गांव की मिट्टी से उनके जुड़ाव को समझा जा सकता है. इसी तरह का लगाव मुनव्वर को अपनी मां से रहा है. मां के लिए मुनव्वर का प्रेम जिस तरह उफन कर शायरी में आया है उसका सानी मिलना मुश्किल है –
चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है.
मां के बारे में जब मुनव्वर राना शेर पढ़ रहे होते तो मंच पर ही उनकी आंखें नम हो आती रही. मैंने खुद देखा है कि मुशायरों में, उनके मां और रिश्तों पर शेर सुनकर बहुत सारे श्रोताओं की पलकें भी उनके साथ नम होती रही है.-
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है,
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है.
साथ ही वे ये भी ताकीद करते हैं कि मां के सामने दीनता नहीं दिखानी चाहिए क्योंकि मां की सबसे बड़ी उम्मीद और ताकत उसके बेटे ही होते हैं –
मुनव्वर मां के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती.जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था.
सन्यासी ने मां के प्रति मुनव्वर के प्रेम को सराहा
एक दफा कथावाचक संत अंगद शरण जी महाराज के कहने पर माघ मेले में अदम गोंडवी की किताब के दुबारा प्रकाशन के मौके पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया. कार्यक्रम बिजली विभाग के पूर्व एमडी एपी मिश्रा ने अंगद शरण जी के शिविर में कार्यक्रम आयोजित किया था. अंगद जी के कहने पर मुनव्वर राना को भी उस कार्यक्रम में बुलाया गया. मैं भी कार्यक्रम में था. मुनव्वर हैदराबाद या दक्षिण के किसी शहर से बनारस होते हुए इलाहाबाद पहुंचे. बहुत देर रात हो गई. उनके घुटनों की समस्या शुरू हो गई थी. नीचे बैठ पाने में असमर्थ मुनव्वर अंगद शरण जी पत्नी और भागवत कथा कहने वाली अर्पणा भारती की सिंहासननुमा गद्दी पर बैठ गए. मेले के माहौल में श्रद्धालुओं के बीच सुगबुगाहट होने लगी. गुरु या गुरुमाता की गद्दी पर वैसे भी कोई नहीं बैठता. अब मुनव्वर राना जो गैर हिंदू हैं वे कैसे बैठ गए. अपने अनुनाइयों की भवना को जान कर अंगदशरण जी ने कहा – “मुनव्वर राना वो शायर हैं जिन्होंने प्रेमी –प्रेमिका के संवाद तक सीमित रहने वाली ग़ज़ल की नायिका मां को बनाया है. मां के प्रेम में बहुत कुछ लिखा है. इन्हें मां की गोद में बैठने का हक है. ये माता जी के सिंहासन पर बैठ सकते हैं.” इस पर माघ मेले में आए श्रद्धालु शांत हो गए. यहां ये बताना भी प्रासंगिक होगा कि अंगद जी खुद साहित्य के बड़े अनुरागी थी. साहित्य चाहे किसी भी भाषा का हो. संस्कृत, हिंदी, अवधी के साथ उन्हें उर्दू के पता न कितने शेर कंठस्थ थे. वे गाहे बगाहे उनका जिक्र करते रहते थे.
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बेटी पर भी खूब लिखा
मुनव्वर राना की शायरी में बेटी का भी उसी तरह जिक्र है जैसा मां का. अपने मुशायरों में भी अपनी बिटिया का बहुत प्यार से जिक्र किया करते रहे है. बेटी की बिदाई का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं –
ऐसा लगता है कि जैसे खत्म मेला हो गया,
उड़ गई आंगन से चिड़िया घर अकेला हो गया.
मुनव्वर ने अपनी भतीजी के बड़े होने का जिक्र जिस तरह से ‘मुहाजिरनामा’ में किया है, वो अद्भुत है. दुनिया भर में कुछ ही रचनाकार हैं, जिन्होंने बेटियों के सौंदर्य पर कविताएं लिखी हैं. जैसे हिंदी में निराला और अंग्रेजी में विलियम वर्ड्सवर्थ. यहां मुनव्वर ने किस सादगी से अपनी भतीजी के बड़े होने का जिक्र किया है वो देखने लायक है-
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी
वही झूले में जिसको हुमकता छोड़ आए हैं.
गरीबी से उठ कर अपने कारोबार के जरिए परिवार और घर को मजबूती देने वाले मुनव्वर राना की शायरी गरीबों मजदूरों के हक में ही रही है.
सो जाते हैं फुटपाथ पर अखबार बिछा कर
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
या
भटकती है हवस दिन रात सोने के दुकानों में
गरीबी कान छिदवाती है तिनका डाल लेती है
हिंदी के साथ उर्दू से प्रेम
जैसा पहले जिक्र कर चुका हूं कि मुनव्वर राना की शायरी की सबसे खास बात उनकी आम बोलचाल की भाषा है. वे उन शायरों से बिल्कुल अलट हैं जो हिंदी से परहेज करते हैं. यहां तक कि उर्दू-हिंदी को सगी बहने बताने वाला उनका शेर भी जुबान पर ही रहता है-
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
दरअलसल, मुनव्वर के पूरे साहित्य को देखने पर पता चलता है कि ये महज एक शेर ही नहीं है. उन्होंने इसे जिया है और बरता भी है. तभी तो वे लिखते हैं –
बहुत दिनों से तुम्हे देखा नहीं है
ये आंखों के लिए अच्छा नहीं है.
मुनव्वर राना मेरे लिए भी बहुत उम्दा शायर हैं. तकरीबन दो दशक से उनसे मिलने, साथ बैठने, बातचीत करने और मंचों से उनकी रचनाएं सुनने को मिलती रही हैं. उनकी किताबे पढ़ीं हैं. हाल के कुछ बरसों में उन्हें लेकर तरह तरह की बातें-चर्चाएं रहीं. उन सारी चर्चाओं को दरकिनार करते हुए एक पाठक के तौर पर हमेशा लगता है कि अपनी रचनाओं से चाहे वो शेरी हो या गद्य की, मुनव्वर का मयार हमेशा बेहद ऊंचा रहेगा.
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Tags: Hindi Writer, Literature, Literature and Art, Munawwar Rana
FIRST PUBLISHED : May 26, 2023, 15:58 IST